लघुकथा

पूर्वाग्रह

तबादले के बाद पतिदेव मुझे मुम्बई शिफ्ट करके चार महीने की ट्रेनिंग पर ऑस्ट्रेलिया चले गए।
 नई जगह थी तो लोगों से जान पहचान भी नहीं थी।एक दिन डोर बेल बजी, बिलकुल छोटे छोटे कपड़ों में, पश्चिमी सभ्यता में ढली एक लड़की खड़ी थी. “मैम मैं आपके बगल वाले फ्लैट में रहती हूँ, क्या आप आज मेरा एक पार्सल ले लेंगी?” और उसने अपना फ़ोन नंबर भी दे दिया। डरते डरते हाँ बोला मैंने, पता नहीं क्या मंगाया होगा!! जाने कैसी है!!   कौन है!! फिर कई बार दिखी.. लिफ्ट में, कान में ईयर फोन लगाये हुए, अपने में मगन, देर रात दोस्तों के साथ जो की लडके,लड़की दोनों होते और हर बार मैं उसके माँ बाप को लानत भेजती रहती की क्या संस्कार दिए हैं। हमारी बालकनी जुड़ी हुई थीं, कई बार वो  बालकनी में बैठी दिख जाती और फिर संशय फन फैलाता, ये करती क्या है!!
एक दो दिन से सर बहुत भारी था, हल्का बुखार भी लग रहा था। उस दिन दवा लेकर सो गई। रात में जब नींद खुली तो शरीर जैसे तप रहा था, खड़े होने की कोशिश की पर बेकार..हाथ पैर हिला तक नहीं पा रही थी. मौत सामने दिख रही थी, पता नहीं कैसे शक्ति बटोरी और उसी लड़की को कॉल लगा दिया पता नहीं कुछ बोला या नहीं मुझे कुछ याद नहीं
जब होश आया तो अस्पताल में थी और वो सिरहाने बैठी थी। पता चला बालकनी से कूद कर आई थी, एम्बुलेंस बुला कर मुझे यहाँ लाई, सारे बिल चुकाये। अस्पताल से छुट्टी मिलने पर मुझे अपने घर ले आई। करीने से सजा घर, पूजा स्थल देख कर मन खुश हो गया। घर पर अपंग माँ भी थी जो बिस्तर से उठ भी नहीं पाती थी। पता चला नौकरी के साथ झुग्गी के बच्चों को पढ़ाती भी है।
आज मैं अपने घर आ गई हूँ पर दिल वही छोड़ आई हूँ… काश वो मेरी बेटी होती!!
ऋचा जोशी
मुम्बई