स्वास्थ्य

आयुर्वेद का त्रिदोष सिद्धांत

आयुर्वेद के त्रिदोष सिद्धांत को समझ लेना आवश्यक है। ये तीन दोष हैं- वात, पित, और कफ। यहाँ वात का अर्थ हवा नहीं है, पित का अर्थ यकृत का स्राव या बाईल नहीं होता है और कफ का अर्थ भी बलग़म नहीं होता है। इसी को महर्षि वाग्भट्ट ने कहा है कि
वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः।

आयुर्वेद के वात दोष का अर्थ शरीर का पूरा तंत्र, मस्तिष्क सहित होता है। वात का अभिप्राय वस्तुत: नाडियाँ या उनमें में बहने वाले ज्ञान से है जैसे बिजली के तारों में विद्युत बहती है उसी तरह नाड़ियों मे बहने वाला ‘सेन्स’ ही आयुर्वेदीय वात हैं यह सब जानते हैं, कि, शरीर की सारी क्रियाएँ तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) पर आधारित हैं। नाड़ियों के कार्यक्षम न होने पर अर्थात लकवा होने की अवस्था में हाथ या पैर के मांस, अस्थि आदि सही होने पर भी हाथ या पैर गति नहीं कर सकते है। अत: आयुर्वेद में शरीर की समस्त क्रियाओं का चलाने वाला ही वात हैं।

पित व कफ पंगु माने गए है, जो वात या वायु के निर्देशानुसार शरीर में संचरण करते हैं। पित्त तथा कफ वस्तुत: शरीर की अंत: स्रावी या एन्डोक्राईनग्लेन्डस तथा बहि सावी ग्रंथियों के स्त्राव है। यह सर्व स्वीकार्य बात है कि शरीर की सारी क्रियाओं के नियामक व प्रेरणा स्रोत ये स्त्राव ही हैं जो मात्रा में अत्यल्प होते हुए भी शरीर की क्रियाओं को निर्णायक स्र्प से प्रभावित करते है।

वात, पित, और कफ ये तीनों क्योंकि ये शरीर को दूषित करते हैं इसलिए इन्हें दोष कहा जाता है। ये दोष शरीर को तभी दूषित करते हैं जब स्वयं विकृत हो जाते हैं। प्राकृतावस्था में तो दोष धातु, मल ही शरीर को धारण करते हैं। किन्तु शरीर को दूषित करने के कारण ही इन्हें दोष नाम से वर्णित किया गया है। परन्तु सदैव ये इसी रूप में नहीं रहते। साम्यावस्था प्रकृति- जब ये प्राकृतावस्था में रहते हैं, तब शरीर को धारण करते हैं, इसीलिए समावस्था में स्थित वात्, पित्त, कफ़ को धातु कहते हैं। और जब ये शरीर धारण के लिए अनुपयुक्त होकर शरीर को मलिन करते हैं तब इन्हें मल कहते हैं।

इन्हीं तीन तत्त्वों पर सारी आयुर्वेदिक चिकित्सा अधिष्ठित है। उन दिनों रोग भी आज की भाँति नित्य नये पैदा नहीं होते थे; प्रत्युत वे सीमित थे। सामान्यतः समग्र मानवजाति सुखी पायी जाती थी। रोग का मूल कारण मिथ्या आहार और विहार माना जाता था। सर्वसाधारण मानव विवेकपूर्वक इससे बचता था, जिससे उस पर रोग का आक्रमण बहुत कम होता था। समग्र वैद्यक विज्ञान चिकित्सा शास्त्र इसी त्रिदोष- सिद्धान्त पर चलता रहा।

पहले लोग प्रातःकाल खाली पेट दातून करके दाँत साफ करते और फिर दातून को चीरकर उससे जीभ रगड़कर सारा दूषित कफ बाहर निकाल डालते थे। नित्य प्रातः खाली पेट हरड़ का चूर्ण फाँक कर गरम-गरम पित्त को दस्त के मार्ग से निकाल डालते थे। इसी तरह बस्ति (एनिमा) लेकर दूषित वायु को निकाल डालते थे। इन दैनिक क्रियाओं से प्रातःकाल ही शरीर की चिन्ताएँ दूर हो जाती थीं। त्रिदोषवाद के अनुसार जगत की चिकित्सा-व्यवस्था चलती रही, तब तक मानव सुखी और दीर्घजीवी होते थे और अन्ततः उनका मोक्ष मार्ग भी निरापद् हो जाता था, किंतु जब से ‘जन्तुवाद’ आया और उन्हें मारने की ओषधियाँ खोजी जाने लगीं, तभी से अनिवार्यतः उसके दुष्प्रभाव और उपद्रव भी असीम रूप में बढ़ने लगे हैं।

वायु का प्रकोप और शमन-

प्राकृतिक वेगों की रोकथाम, अधिक मात्रा में भोजन और जागरण, अधिक श्रम, जोर देकर बोलना, लगातार गाड़ी-घोड़ा और रेल-जहाज पर यात्रा, कड़वे, तीखे और रूखे पदार्थों का निरन्तर सेवन, चिन्ता, अधिक स्त्रीसंग, भय, अधिक उपवास, शोक आदि के कारण वायु सदैव अपना स्थान त्याग देता है। उसे पुनः अपने स्थान पर लाने के लिये उष्ण, स्थिर, वृष्य, बल्य, लवणयुक्त, स्वादु और अम्ल पदार्थों का सेवन, तैलमर्दन, धूप-ग्रहण, गरम जल से स्नान, अभ्यंग, बस्ति, आसव सेवन, देहमर्दन, स्नेहन, स्वेदनिष्कासन, नस्य, विश्राम, सेंक आदि क्रियाएँ करनी चाहिये। उससे विकृत वायु का शमन होकर वह अपने नियत स्थान पर लौट आता है। आयुर्वेद में 80 प्रकार के वायु रोग (वात रोग) हैं, आजकल जिसे ‘सर्वाइकल’ के नाम से जाना जाता है वह एक प्रकार का वात रोग ही है।

पित्त का प्रकोप और शमन-

तीखे, खट्टे, विशेष लवणयुक्त, उष्ण, विदाही और तीक्ष्ण पदार्थ तथा मद्य का सेवन, सूखे शाक का खाना, क्रोध, ताप, अग्नि, भय, श्रम, विषम भोजन आदि से स्थान पर लाने के लिये कड़वे, मीठे, कसैले, शीतल पदार्थों का भोजन, पवन, छाया, जल, चाँदनी (तहखाना), फुहारा, कमल आदि शीतकर वस्तुओं का सेवन, घी-दूध का सेवन, विरेचन, सूखी आदि (सोंठ) के लेप आदि से पित्त पुनः अपने स्थान पर आ जाता और उसका शमन हो जाता है। आज भी पित्त के शमन के लिये अनेक प्रकार के लेप किये जाते हैं। साठी चावल, बथुआ (शाक), मूँग और दूध पित्त के प्रमुख रूप से शामक माने जाते हैं।

कफ का प्रकोप और शमन-

मधुर, ठंडे, भारी, खट्टे, पिच्छिल, स्निग्ध, दूध के बने पदार्थ और ईख का रस सेवन करने, अतितृप्ति, अधिक मीठा खाने, अधिक पानी पीने आदि से कफ की वृद्धि होती है और वह अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र चला जाता है। परिणामस्वरूप छाती भारी हो जाती है, शरीर श्वेत हो जाता है, खुजली होने लगती है, सदैव आलस छाया रहता है। कफ को पुनः अपने निश्चित स्थान पर लाने के लिये रूक्ष भोजन, क्षार का सेवन, कषाय तिक्त, कटु पदार्थ खाना, व्यायाम, उलटी, गमन (चलना), जागरण, नदीं में तैरना, ताप, विरेचन, स्वेद लाना आदि क्रियाएँ करनी चाहिये।

प्राचीन काल में दोषों का प्रकोप होने पर उनके शमन पर ही सर्वाधिक ध्यान दिया जाता था, जैसे विकृत कफ को वमन करवाकर निकाल दिया जाता था, दूषित पित्त को विरेचन करवाकर निकलवा देते थे और प्रकूपित वायु को बस्ति द्वारा शुद्ध करवा दिया था। इस चिकित्सा में रोग या दोष को दबा देने की बात ही नहीं की जाती थी, जबकि आज के डाक्टर ऐन्टीबायोटिक से पित्त को दबा देते हैं जिसके विपरीत प्रभाव भी होते हैं।

विजय कुमार सिंघल 
श्रावण कृ 3, सं 2075 वि. (30 जुलाई 2018)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com