कविता

तत्कालीन वस्तुस्थिति

सन 2014 के आम चुनावो के होने तक आम जनमानस की मनोदशा ऐसी ही थी…हर ओर सिर्फ अंधेरा ही दिखता था ….

और तब……..

 

बढ़ता जितना अंधियारा है

आलम हो जाता कारा है

जब घड़ा पाप का है भरता

वो अपनी मौत मरा करता

विद्रोही होती सभी दिशा

हाँ, हारे तब मनहूस निशा

 

जब चहूँ ओर अंधेरा हो

वो भी घनघोर घनेरा हो

तब एक किरण की आस जगे

सूर्योदय बिल्कुल पास लगे

फिर तम का मुँह काला होता

सूर्य निकलने वाला होता

 

प्रभात के पहले रात रहे

तब सूर्य कही अज्ञात रहे

ये देख तिमिर अकड़ता है

फिर वो मनमानी करता है

बढ़ता है उसका पाप बड़ा

भरने लगता संताप घड़ा

 

जब नशा तिमिर का छाता है

अंधियारा ही बस भाता है

कुछ लोग उजाले चाहे ना

उनको उजियाला भाए ना

रहे अंधेरा चाहता है

उल्लू को तम ही भाता है

 

हर चाल अंधेरा चलता है

उजियाला भी कब डरता है

वो अंधियारे को चीर बढ़े

वो जाय गगन के शीश चढ़े

कह, कौन सका है रोक प्रभा

किसके रोके रुकती प्रतिभा

 

ब्रम्हांड समूचा निश्चल हो

तब दूर गगन में हलचल हो

अंधियारे का तब काल दिखे

काला अम्बर जब लाल दिखे

वो विजय निशानी होती है

तब भोर सुहानी होती है

 

मनोज डागा

निवासी इंदिरापुरम ,गाजियाबाद ,उ प्र, मूल निवासी , बीकानेर, राजस्थान , दिल्ली मे व्यवसाय करता हु ,व संयुक्त परिवार मे रहते हुए , दिल्ली भाजपा के संवाद प्रकोष्ठ ,का सदस्य हूँ। लिखना एक शौक के तौर पर शुरू किया है , व हिन्दुत्व व भारतीयता की अलख जगाने हेतु प्रयासरत हूँ.