लघुकथा

लघुकथा

मेरे बचपन के प्रिय मित्र,

सुबह का राम राम और सझौंती के सलाम

यहाँ कुशल वहाँ जगमाहीं, मेरा पत्र मिला की नाहीं। जवाबी पत्र का इंतजार करते-करते आँखें पथरा गई, पोस्ट ऑफिस का डाकियाँ भी बदल गया लगता है। पुछनेपर नाराज हो जाता है, कहता है कि खुद लिखकर लाऊँ क्या?, रोज-रोज आकर दरवाजे पर खड़े रहते हो, पत्र आया क्या? पत्र आया क्या?। यहाँ मनीआर्डर देने में पोस्टमास्टर साहब जानबूझकर देरी जरूर करते हैं पर पत्र तो फौरन बाहर निकाल देते हैं, जानते हो क्यों?, क्योंकि बैरन पत्र का पैसा वसूलना होता है। जाओ और चैन से सो जाओ। लिखने वाला तुम्हारा हमदर्द जैसे ही जगेगा, पत्र मिल जाएगा।

दूसरी बात भी कान खोलकर सुन लो, गाँव की जिंदगी और शहर की जिंदगी में माटी का फर्क होता है, पानी का फर्क होता है रहन-सहन और भावनाओं का फर्क होता है। यहाँ अन्न देवता का वास है तो वहाँ लक्ष्मी मैया की महरबानी, मान लो कि उसपर कृपा बरसने लगी है। बचपन, जवानी और बुढ़ापे में भी बहुत फर्क होता है। उम्र और ओहदे की शिनाख्त पर मित्र और रिश्ते भी बदल जाते हैं। अब न करना इंतजार किसी के पत्र का मेरे भोले मानुस।

डाकियाँ बाबू ने जो कहाँ क्या वह सही है विनती करता हूँ, एक लाइन लिखकर इतना जरूर बता देना राम-राम।

तुम्हारा लंगोटिया मीत

महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ