सामाजिक

लेख : गिरगिट का रंग बदलना

कभी-कभी हम लोग कितनी गलत कहावतें बना लेते हैं और मजे की बात ये है कि सदियों तक वो चलती भी रहती हैं। उदाहरण के तौर पर “गिरगिट जैसे रंग बदलना”। हम हमेशा ये कहावत अवसरवादिता एवं स्वार्थलोलुपता दर्शाने के लिए प्रयोग करते हैं। परंतु वास्तव में ऐसा है नहीं। गिरगिट अपना रंग केवल तब बदलता है जब अपने किसी शत्रु से उसे अपनी रक्षा करनी होती है और उसे यह सामर्थ्य ईश्वर ने उसकी संतति को बनाये रखने के लिए स्वयंसिद्ध प्रदान की है जब कि मनुष्य अपना रंग अपने तात्कालिक स्वार्थ जो भौतिक और शारीरिक दोनों होते हैं, की पूर्ति के लिए बदल लेता है . इससे उसे इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि इससे दूसरे का नुक्सान हो रहा है या नहीं। उसका दृष्टिकोण केवल इतना होता कि रंग बदलने से उसे तात्कालिक या दीर्घकालिक लाभ मिलना चाहिए। इसलिए वह अक्सर अपना रंग बदलता है। उसकी इस कुटिल प्रवृति में ईश्वर का कोई योगदान नहीं है। गिरगिट को उसकी अपनी प्रजाति के जीव से खतरा नहीं होता जबकि मनुष्य अपनी ही प्रजाति के लिए खतरा बना रहता है, विशेष रूप से उस मनुष्य के लिए जो उसके सीधे-सीधे सम्पर्क में होता है और जिससे उसने बहुत सारे लिखित-अलिखित संबंध बनाये होते हैं। इंसान होने के नाते क्या हमें अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं करना चाहिए। हम प्रकृति में बौद्धिक दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं तो हमें उसका प्रमाण भी तो देना होगा।

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- rajivmalhotra73@gmail.com

One thought on “लेख : गिरगिट का रंग बदलना

  • विजय कुमार सिंघल

    आपका कहना पूर्णतः सत्य है. गिरगिट और मनुष्य के रंग बदलने में बहुत अंतर है.
    लेकिन अधिकांश कहावतें इसी तरह गलत अर्थ के साथ प्रयोग की जाती हैं.

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