लघुकथा

लोकतंत्र

 

एक न्यूज़ चैनल के एडिटर इन चीफ के मेज पर रखी फोन की घंटी घनघना उठी ।
एडिटर ने फोन उठाया ,” हेल्लो ! एडिटर नई आवाज स्पीकिंग ! ”
” हेल्लो ! मैं भारतीय जनसेवा पार्टी का मीडिया प्रभारी मुखर्जी बोल रहा हूँ ! ”
” हाँ जी ! कहिए ! मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? ”
” वो क्या है न कि हम चाहते हैं कि अभी अभी आपने जो अपना सर्वे दिखाया है , जिसमें चारों राज्यों में हमारी सरकार बुरी तरह से हार रही है , वह बार बार दिखाना बंद कर दो ! ”
” अरे सर ! वो तो हम अपना कर्तव्य निभा रहे हैं ! लोकतंत्र में पत्रकारिता को तटस्थ रहना चाहिए और जो सच है उसे दिखाने से पीछे नहीं हटना चाहिए ! ”
” तो विज्ञापन क्यों दिखाते हो ? ”
” सर ! वो तो हमारी व्यावसायिक मजबूरी होती है ! ”
” अच्छा ! तो विज्ञापन दिखाने के पैसे मिलते हैं ! इसका मतलब पैसे मिले तो आप अपने चैनल पर कोई भी विज्ञापन दिखा सकते हो ? ”
” जी सर ! इसमें क्या दिक्कत है ? हम नीचे सूचना लिख देते हैं कि इस विज्ञापन से चैनल का कोई लेना देना नहीं है । बस ! हमारी चिंता ख़त्म ! ”
” ओके ! अब सुनो ! आपको जितने भी पैसे विज्ञापन दिखाने के मिलते हैं हम उससे दुगुने पैसे वह सर्वे नहीं दिखाने पर देने के लिए तैयार हैं । बस सर्वे या उससे जुड़ी कोई खबर दुबारा आपके चैनल पर नहीं चलनी चाहिए ! ”
” जी कोई बात नहीं ! सौदा पक्का ! वह सर्वे और वह खबर दुबारा चैनल पर नहीं चलाई जाएगी ! आप अपने प्रतिनिधि को हमारे दफ्तर भेज दीजियेगा ! नमस्कार ! ”
कहते हुए एडिटर इन चीफ ने फोन रख दिया । उसके आँखों की चमक बढ़ गई थी एक तगड़े सौदे की ख़ुशी में ! उसकी कुर्सी के पीछे लगी लोकतंत्र के देवी की मूर्ति मुस्कुरा उठी थी …..अपनी बेबसी पर !

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।