लघुकथा

मज़बूरी

तीन तीन बेटियों का ब्याह करना हैऔर बरसात में  निगोड़ा छत भी टपक रहा है। इन्द्र देवता ना जाने क्यों करेजा फाड़ कर रो रहे हैं, छत जगह जगह से फूट गया है, डेगची, कड़ाही लगाकर पानी छानना पड़ता है नहीं तो गीले जमीन में सो भी नही सकते। हे भगवान! तुम ही पार लगाना। गाँव में रह रहे बुढे माँ बाप मानसिक विकलांग भाई हमारे ऊपर ही आश्रित हैं, यहाँ भी पत्नी और अनब्याही बेटियाँ । कुल मिला कर सात जने का परिवार एक हमारे कंधे पर। छोटी सी नौकरी, ना जाने कैसे क्या होगा।
बादल की गर्जन से बार बार घबड़ाकर उठ जाता बिशेशर, वैसे भी आर्थिक चिंता सोने कहाँ देती।
बड़की बेटी का जैसे तैसे शादी ठीक तो हो गया है, पर दान दक्षिणा कहाँ से आएगा और भी तो तामझाम के कई झमेले हैं। कैसे होगा सब चार महीने में। ………….
माँ पिता भाई को लेकर शहर आ रहे थे कि रास्ते में ही ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तीन जनरल बोगी पुरी तरह पलट गई। सर पकड़कर बैठ गया बिशेशर।
अरे रामा! कौन फूटल भाग लेकर पैदा हुए थे, परेशानी खत्म ही नहीं होता। पता नहीं माँ बाऊजी गणेशा कैसे होंगे। उनके इलाज़ में जाने कितना पैसा लगेगा, लड़की की शादी के लिए मुश्किल से जमा कर ही रहे थे कि अब….ये सब। उनकी सलामती की दुआ कर ही रहा था कि न्यूज चैनलों पर रेल दुर्घटना में मारे गये लोगों के परिजन को सरकार द्वारा दो-दो लाख दिये जाने की घोषणा  सुना । घबराया मन दूसरी तरफ चलने लगा” जनरल बोगी पुरा पलट गया है, शायद ही कोई बचे हो । माई बाबू तो बूढ़े हो गये, आज नही तो कल जाना ही था, उसके बाद गणेसा को कौन देखता। दो-दो मतलब छः लाख मिल सकते हैं। इतना में तो तीनों लडकियों का ब्याह भी हो जाएगा और …पहले छत ठीक करवा लिया जाएगा बरसात में बड़ी दिक्कत हो रही है। फिर भी पैसा बच जाएगा।
बिशेशरा खूब खट लिए, बेकार भगवान को कोस रहा था, वो बेईमान नही है देखो तुम्हारी सुन लिए ना ।
माँ बाप भाई के निर्जीव प्राण के आगे हरे हरे नोट …..मन प्रफुल्लित हो ईश्वर के आगे नतमस्तक हो गया।
किरण बरनवाल 

किरण बरनवाल

मैं जमशेदपुर में रहती हूँ और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से स्नातक किया।एक सफल गृहणी के साथ लेखन में रुचि है।युवावस्था से ही हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष झुकाव रहा।

One thought on “मज़बूरी

  • राजकुमार कांदु

    बहुत सुन्दर कहानी !

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