कहानी

प्रतिशोध

तालियों की गड़गड़ाहट से अर्चना का स्वागत किया जा रहा था,मासुम सी प्यारी प्यारी कन्यायें फूल बरसा मानों
कृतज्ञता प्रकट कर रही हों अपनी दीदी का।सालों से खुद से जद्दोजहद करती आखिर जीत गई थी । उसका संघर्ष रंग लाया था,अंततः टूटे ख्वाब को पंख देने में  सफल हो गई वो। बालिका कल्याण भवन आकर फख्र महसूस हो रहा था उसे।
       सरकारी उच्च  पद पर आसीन  पिता की बेटी अर्चना यू.पी.एस.सी की तैयारी कर रही थी। रोबीले पिता स्वभाव से भी अनुशासन प्रिय थे।खता उनकी इतनी थी कि सरकारी अफसर रहते हुये भी ईमानदारी का दामन छोड़ नहीं पाते।इस कारण कई दुश्मन पाल बैठे थे।भ्रष्ट नेता के आदमियों का टेंडर पास ना करना उनके जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप बन गया।
 छुट्टी में घर आई  ईमानदार अफसर की बेटी  आँखो में चढ गई और बदला लेने का मौका  मिल गया उन्हे। अमावस्या की रात ग्रहण लगा गया अर्चना के परिवार में। रात के अंधेरे में घर घुस माता पिता को रस्सी से बांध उनके सामने ही उनकी लाडलियों की इज्जत तार तार कर दी गई , निकलते निकलते पिता को भी मार डाला उन दबंगो ने।
भोर तो नियत समय पर हुई,अरुण लालिमा लिए फिर नवजीवन का संदेश दे रहा था पर अर्चना का जीवन तो स्याह हो चुका था। रोती बिलखती बहन और दोनों भांजियों  को अपने घर ले आए मामा ।धीरे-धीरे जख्म तो भरने लगे पर मन के घाव गाहे बेगाहे पीड़ा दे जाते। छोटी बहन अपने साथ हुई ज्यादती बर्दाश्त नहीं कर सकी,जिस गुनाह को उसने किया ही नहीं उसे भोगना दिल ने गवारा नहीं किया ,नन्ही कली ने मौत को गले लगा लिया। हंसता खेलता परिवार बिखर चुका था,जाने किसकी नजर लगी  थी।माँ के होंठ सिल गये थे और अर्चना ….वो तो पत्थर की बूत बन गई थी।
“बेटा जिन्दगी गुलाब का सेज नहीं  है,हमें काँटो पर भी चलना पड़ता है।” मामा के बार बार समझाने पर बिलख कर रोने लगी वो”क्या गलती थी हमारी मामा।पापा के ईमानदारी का इतना बड़ा फल मिला हमें क्यों मिला ।घिन आती है अपने शरीर पर।उन दरिन्दों ने माँस का टुकड़ा समझ हमें  नोच डाला मामा”।
मामा ने धीरे-धीरे अर्चना का मनोबल बढ़ाना शुरू किया।महापुरुषों की जीवन गाथा और उनके संघर्ष  सुना उसका आत्मविश्वास वापस  लाने की कोशिश की।
“बेटा अगर डर कर बैठ गई तो वे वहशी फिर हवस का नंगा खेल खेलेंगे। उठो ,सबक सिखाओ उनको कि फिर ऐसा घृणित कार्य किसी बहु बेटी के साथ ना हो”।
अर्चना ने  प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी।पढती तो पिता की बेबस आँखे ,माँ का निरीह चेहरा सामने घुम जाता।बहन की चीख से अंतर्मन कांप उठता।अपने शरीर पर सैकड़ों कीड़े रेंगते महसूस होते।पसीने से तरबतर हो जाती,फिर मामा को दी प्रतिज्ञा याद आती , और भी जी जान लगा जूट जाती वो।
भगवान भी और कितना परिक्षा लेता,आखिर सफल हो गई वो।पुलिस कमिश्नर बन जंग जारी रखा अर्चना ने।उसके जीवन का एक ही ध्येय रह गया था उन अभियुक्तों को सजा दिलाना और उन बच्चियों को इन्साफ दिलाना जो किसी के मनोविकार की शिकार हुई हों।सरकार के सहयोग से बालिका कल्याण  भवन की स्थापना की गई जहाँ उनके रौंदे बचपन को फिर से संवारने की कोशिश होती।
अंततः प्रतिशोध पुरा हुआ,उन बलात्कारियों और हत्यारों  को फाँसी की सज़ा मिली। छोटी बहन और पिता की तस्वीर को माल्यार्पण  कर अर्चना ने श्रद्धांजलि दी। जीवन संघर्ष  जीत चुकी थी  वो।
किरण बरनवाल 

किरण बरनवाल

मैं जमशेदपुर में रहती हूँ और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से स्नातक किया।एक सफल गृहणी के साथ लेखन में रुचि है।युवावस्था से ही हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष झुकाव रहा।

One thought on “प्रतिशोध

  • राजकुमार कांदु

    वाह ! बहुत बढ़िया कहानी !

Comments are closed.