राजनीति

लेख– जिस राह पर आज समाजवाद, उसका मूल तो ऐसा कभी न था।

लोकतंत्र में राजधर्म की बात होती है। ऐसे में हम अपनी बात की शुरुआत हम दो बिंदु के ज़िक्र से करेंगे। जो यह साबित करेगा। राजनीति में आज विचारों की कोई अहमियत नहीं रह गई है। बात हम अगर समाजवादी पार्टी के टूटने के बारें में कर रहें। तो ऐसे में बात फिर कर्पूरी ठाकुर और डॉ राममनोहर लोहिया की भी होनी चाहिए। दो बिंदुओं में से पहले एक का ज़िक्र कर्पूरी ठाकुर का। जो सदैव दलित, शोषित और वंचित वर्ग के उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहे और संघर्ष करते रहे। उनका सादा जीवन, सरल स्वभाव, स्पष्‍ट विचार और अदम्य इच्छाशक्‍त‌ि बरबस ही लोगों को प्रभावित कर लेती थी, और लोग उनके विराट व्यक्‍त‌ित्व के प्रति आकर्षित हो जाते थे। उनके बारे में एक किस्सा है, कि एक बार प्रधानमंत्री चरण सिंह उनके घर गए। तो दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी चरण सिंह जी को सर में चोट लग गई। चोट लगने के बाद जब चरण सिंह जी ने कर्पूरी जी से कहा आप दरवाजें को थोड़ा ऊंचा करवाएं। तब कर्पूरी ठाकुर का जवाब आता है, कि जब तक बिहार में सभी गरीबों का घर नहीं बन जाता, तब तक सिर्फ़ हमारे घर बन जाने से क्या होगा।

यहां बात दूसरे बिंदु की करेंगे, तो पाएंगे। वह विचार समाजवाद के मसीहा डॉ राममनोहर लोहिया का है। उनका कहना था, जाति अवसर को सीमित करती है। सीमित अवसर क्षमता को संकुचित करता है, और संकुचित क्षमता अवसर को और भी सीमित कर देती है। जहाँ जाति का प्रचलन है, वहां अवसर और क्षमता हमेशा से सिकुड़ रहे कुछ लोगों के दायरे तक सीमित है। तो आज के दौर में हम क्या कहें आज की समाजवादी पार्टी को देखकर सभी समझ जाएंगे। उसमें चल क्या रहा है। वैसे हमाम में सब नंगे हैं। फिर भी ज़िक्र यहां समाजवाद की ही विशेष रूप से। समाजवादी पार्टी में अमूमन दो फाड़ का बीजारोपण तो काफ़ी पहले से हो गया था। जो अब मूर्त रूप में सामने है। वैसे देखें तो यह राजनीति का फ़लसफ़ा है, जब किसी की महत्वाकांक्षाएं निष्पादित होती नहीं दिखती। तो वह पार्टी आदि से मुँह फ़ेर लेता है। ऐसे में सवाल तो बहुतेरे पनपते हैं, लेकिन किसी सियासतदां को क्या फ़र्क़ पड़ता है। उसके लिए राजनैतिक राजधर्म, नीति आदि तो भोथरे हैं तत्कालीन दौर में। ऊपर बात बहुतेरे प्रश्नों की गई है। तो ऐसे में पहला प्रश्न यहीं। जिस पार्टी का अस्तित्व जनता दल के रूप में भारतीय लोकतंत्र में होता है। वह कितने टुकड़े में बंटती जाएगी? क्यों आज के दौर में विचारों और सेवाभाव की जगह स्वहित की भावनाएं प्रबलता से हिचकोले सियासतदानों में मार रहीं? पार्टी के विचारों को देखें, तो काफ़ी गूढ़ अर्थ दृष्टिगत होता है। जनता दल, उसके बाद उस पर एक नया राजनीतिक लेप लगाकर समाजवादी पार्टी बनी।

फिर ऐसे में प्रश्न यहीं जब समाजवादी पार्टी के बाद अब सेक्युलर मोर्चा चुनावी चकल्लस के बाज़ार में पेश कर दिया गया है। तो क्या समझें अपने-अपने हितों के संरक्षण के लिए कर्पूरी ठाकुर और राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी विचारों को तिलांजलि दे दी गई है। यहां लाख टके का सवाल यह भी उठता है, कि जिन पार्टियों का गठन अवाम के हितों के संरक्षण के नाम पर होता है, साथ में अवाम उन दलों में अपना राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अक्स देखने लगती है। फिर अगर इन्हीं दलों के लोग अपने हित पोषित और पल्लवित करने के लिए जनता के हितों को बलि-वेदी पर चढ़ा रहें। तो उस अवाम का क्या होगा। जो समाजवाद या अन्य दलों में अपने प्रतिनिधित्व और विकास का प्रतिरूप देखती आ रहीं हो।

एक बात ओर डॉ राममनोहर लोहिया जी का विचार था, कि अगर हम निजी सम्पति के प्रति प्रेम को ख़त्म करने का प्रयास करें। तो शायद हम भारत में एक नए समाजवाद की स्थापना कर पाएंगे, लेकिन आज तो स्थिति उनके विचारों की पार्टी की अन्य दिशा में ही जाती दिख रही। समाजवादी पार्टी अब परिवारवाद रूपी कुनबे का स्वरूप ले चुकी है। सत्ता के लिए विपरीत विचारों का हाथ थामा जा रहा। जिस जाति व्यवस्था को राममनोहर लोहिया जी अवसर सीमित करने वाला कहते हैं, उसी को बढ़ावा उनके नाम पर राजनीति करने वाले दे रहें। तो ऐसे में समाजवाद में फाड़ का क्या असर 2019 के लिहाज़ से सपा और उत्तरप्रदेश सूबे में झलकेगा, वह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है। आज के दौर में राजनीति के रणबांकुरों ने अपने पुरोधाओं के विचारों को ताक पर रखकर सिर्फ़ सत्ता के साधक बन रहे, जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896