कविता

तुम

तुम
शब्दों से परे
अहसास की भाषा हो |

निर्विकार
प्रेम की पराकाष्ठा हो |

तन्हा रास्तों में
गीतों का गुंजन हो |

असंख्य तारों की भीड़ में
पूर्णमासी का चाँद हो |

मेरे संचित कर्मो से निर्मित
आशा और विश्वास हो |

महसूस करो . . .
मुझमे बसी सुगंध को
ये सुगन्ध मेरी और तुम्हारी है

इससे जीवित हैं अहसास –
जो भीड़ में खोज लेते हैं एक दूजे को|
तन्हा रातों को
करते हैं गुलज़ार |

आ ! फिर समेट ले अपने दामन में ,
प्यार के ये मोती
आ ! संचित करलें पुनः
प्रीत रीत निष्ठा से
‘मृदुल’
मधुरिम यादों के वो स्वर्णिम तार |
©®मंजूषा श्रीवास्तव”मृदुल”

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016