गजल
पीढ़ियों से भेद का उपहार है ।
क्या यही समभाव का अधिकार है ?
मार कर प्रतिभा प्रगति की सोचता,
बोल क्या तू मानसिक बीमार है ?
नाम से वह घाव कर सकती नही,
बेअसर है ,काठ की तलवार है ।
छोड़ दे यह वहम ,तू ऐ रहनुमा ! –
मुझको बस तेरी खुशी दरकार है ।
मर्द की शक्लों में ,सब नामर्द हैं,
हर सियासतगर ,निरा बेकार है ।
कुर्सियाँ तुम थाम कर बैठे रहो,
देश का हो रहा बंटाधार है ।
वाह रे कानून! अब जायज है गर,
आदमी को आदमी से प्यार है ।
——–© डा.दिवाकर दत्त त्रिपाठी