सामाजिक

सर्वोच्च न्यायालय और तुष्टीकरण

ऐसा लगता है कि जब से कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ अवमानना की नोटिस दी थी, तब से सर्वोच्च न्यायालय दबाव में आ गया। कांग्रेस का यही उद्देश्य था और इसमें वह सफल रही। अवमानना की नोटिस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने लगातार ऐसे कार्य किए और ऐसे फैसले लिए जिन्हें तुष्टीकरण की श्रेणी में डाला जा सकता है। करुणानिधि के निधन के बाद उनको दफ़नाए जाने की जगह को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने रात भर सुनवाई की। कर्नाटक में नई सरकार के गठन और विश्वास प्रस्ताव के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही त्वरित सुनवाई की और हैरान करने वाला फैसला सुनाया। कल को पूरा मरीना बीच कब्रगाह बन जाय, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्ति का भी प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय कर रहा है। अबतक यही ज्ञात था कि भारत में संसद ही सर्वोच्च है और उसे ही कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारणा को निर्मूल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए वर्तमान विवादित कालेजियम सिस्टम के स्थान पर संसद ने एक बिल पारित किया था जिसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गई थी। स्पष्ट है कि राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वह बिल कानून बन गया था। सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद्द कर दिया। उस कानून के लागू होने से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति में मनमानी और भाई-भतिजावाद पर रोक लगने का खतरा था। सारी सीमाओं को लांघते हुए संसद के दोनों सदनों से आम सहमति से पारित और राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कानून को सु्प्रीम कोर्ट ने कैसे रद्द कर दिया, समझ के परे है। संसद और राष्ट्रपति – दोनों संवैधानिक संस्थाएं सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बौनी नजर आईं।
अभी-अभी शहरी नक्सलियों के प्रति अत्यधिक सहानुभूति दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने जिस तरह की टिप्पणी की है और आदेश पारित किया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं एक पार्टी हो। राष्ट्रद्रोह में लिप्त होना और प्रधान मन्त्री की हत्या की साज़िश रचना सुप्रीम कोर्ट के लिए बहुत मामूली घटना लग रही है। सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीश सेवा में रहते हुए प्रेस कांफेरेन्स कर सकते हैं, सुप्रीम कोर्ट उनपर कोई कार्यवाही नहीं कर सकता, लेकिन महाराष्ट्र का एक पुलिस अधिकारी अगर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए प्रेस कांफेरेन्स करता है तो वह अवमानना का विषय बन जाता है और कड़ी फटकार का पात्र बन जाता है। क्या यह दोहरी मानसिकता या दोहरा मापदण्ड नहीं है?
कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करते हुए भारतीय दण्ड संहिता की धारा ३७७ को लगभग रद्द कर दिया है। अति आधुनिक और पश्चिम के अनैतिक खुलेपन से होड़ लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए प्रकृति के नियमों को भी ध्यान में नहीं रखा। प्रकृति ने सभी प्राणियों को मर्यादा में बांध रखा है। मनुष्य के अतिरिक्त कोई भी प्राणी प्रकृति प्रदत्त सीमा से बाहर जाकर यौनाचार करता दिखाई नहीं पड़ता। जंगल में रहने वाले स्वच्छन्द प्राणी भी प्राकृतिक क्रम में और सन्तानोत्त्पत्ति के लिए ही यौनाचार करता है। मनुष्यों के आदिवासी समाज में भी समलैंगिकता दूर-दूर तक प्रचलन में नहीं है। केवल तथाकथित सभ्य मानव ही अपने अहंकार की तुष्टि के लिए अमर्यादित चर्या की ओर आकृष्ट होता है। उससे भी आगे बढ़कर आज बहुशिक्षित समाज में विशेष रूप से पाश्चात्य समृद्ध देशों में व्यक्ति जिन कुंठाओं के बीच जीवन-यापन करता दिखाई देता है और जिस प्रकार के मादक पदार्थों के सेवन के बीच अपनी वासनाओं से संघर्ष करता है, वहाँ इस तरह की गतिविधियों का चलन तेजी से बढ़ा है। दूसरी बात यह भी है कि वहाँ हमारी तरह कोई समाज व्यवस्था नहीं है, जिसका अंकुश परोक्ष रूप से किसी व्यक्ति पर लगता हो। वहाँ की आबादी की इकाई व्यक्ति ही है और सारे कानून भी व्यक्ति को ध्यान में रखकर बने होते हैं। इसी का परिणाम यह रहा कि व्यक्ति स्वतंत्र रहने के बजाय स्वच्छन्द हो गया। सुप्रीम कोर्ट के समलैंगिकता के पक्ष में दिए गए फैसले से एक और विषम परिस्थिति देश और समाज के सामने आनेवाली है। जो लड़के या लड़की समलैंगिकता की ओर आकर्षित हो जाते हैं, वे शादी करने को कभी राजी नहीं होते। इस स्थिति में माँ-बाप को बिलखते हुए और समाज की दृष्टि में उपेक्षित होते हुए देखा जा सकता है। ऐसे लड़के-लड़कियों पर न किसी की सलाह का असर होता है और न ही विपरीत लिंगीय आकर्षण होता है। जीवन का एक तरह से यह एक बड़ा नैतिक विघटन और पतन है। स्वतंत्रता सबको चाहिए, किन्तु हमारे देश में समाज-व्यवस्था भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कानून। अगर इसे ध्यान में नहीं रखा गया तो खाप पंचायतों का प्रचलन अपने आप बढ़ जाएगा।
हमारी परंपराएं कानून के समकक्ष मानी गई हैं। सभी तरह की सेवाओं पर भी इसका असर पड़ेगा। इस तरह के कानून तो समाज की मर्यादा के भीतर ही अपना अस्तित्व तय करें, उसी में देश और समाज का कल्याण शामिल है। अगर ऐसे ही फैसले आते रहें, तो एक काल के बाद हमें भी इस देश में सांस्कृतिक पवित्रता तार-तार होती दिखने लग जाएगी। चंद लोगों की मनमानी के कारण हमारे सनातन और पुराने ज्ञान की यही उच्छृंखल लोग सार्वजनिक स्थलों पर सरे आम होली जलाएंगे।

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.