कविता

हैं भ्रम के जाल भरत लाल

हैं भ्रम के जाल भरत लाल, अध-पके रहे;
पहचान सके खुद को कहाँ, भटकते फिरे !
शिक्षा व दीक्षा हुई कहाँ, कर्म कब करे;
अनुभूति गूढ़ हुई कहाँ, याचते रहे !
बिन योग तंत्र मंत्र लिए, ध्यान बिन धरे;
देखे स्वरूप प्रभु का कहाँ, दीनता गहे !
मन पाए मिला परस्पर न, भेद कर रहे;
युद्धों में गँवा शक्ति दिए, त्राण कब लभे !
पहचाने कहाँ राजा प्रजा, प्रज्ञ बिन हुए;
‘मधु’ के कन्हैया समझे कहाँ, कंस को पचे !
गोपाल बघेल ‘मधु’