राजनीति

लेख– गांवों की तरफ़ मोड़ना होगा विकास की धारा!

लोकतांत्रिक व्यवस्था के सात दशकों का दस्तूर रहा है। सियासतदानों की किताब का मुख्य पृष्ठ गांव, ग़रीब और किसान ही रहा है, लेकिन शायद इन तीनों की दशा में परिवर्तन नहीं आया। इन तीनों के फटेहाल पर रोना तो उस दौर का ज़िक्र करने मात्र से आ जाता है। जब यह पता चलता है, कि रहनुमाई उदासीनता की वज़ह से सांसद आदर्श ग्राम योजना जैसी महत्वाकांक्षी योजनाएं भी कोरी लफ्फाजी से इतर कुछ ज़्यादा साबित नहीं हो रही। यहां बात हम तीन बिंदुओं की करेंगे। जो किसी भी राष्ट्र को सुविधा-सम्पन्न बनाने में महती भूमिका अदा करते हैं। इन तीनों का ज़िक्र क्रमशः रोटी, शिक्षा और चिकित्सा मान सकते हैं। हमारे लोकशाही व्यवस्था ने इन तीनों के इंतजाम बेहतरी से करवाने का ज़िक्र तो हर चुनाव और राजनीतिक बैठकों में किया, लेकिन दुर्भाग्य लोकशाही व्यवस्था का है। जिसमें वह मयस्सर होता दिख आज की स्थिति में भी नहीं रहा है। कहीं न कहीं नीतियों में विसंगतियों की वज़ह से आज भी गांव-ग्रामीण की अवाम बेबस और लाचार है। न्यू इंडिया की बहती हवा में वह धुंध और अंधेरे का शिकार है। यह धुंध और अंधेरा कई रूप लिए हुए है।

वैसे धुंध और कुहासा तो हमारे जनप्रतिनिधियों के विचारों पर भी छाया हुआ है, तभी तो उनके विचारों में सिर्फ़ शिव-सत्ता और सियासत हावी रहती है। जिसके कारण अमूमन लोकहित और जनसरोकार के विषय गूढ़ हो जाते हैं। जिस बदलाव की मनमाफिक उम्मीद अवाम 2014 के आम चुनाव से लगाकर बैठी थी। वह आज अपने सत्ता-सिंहासन के पूरे करते हुए समय में भी वैसा उम्मीदों पर खरी उतरती पचास फ़ीसद भी नहीं दिखी है। जिस मुद्दे पर वह सत्ता रूढ़ हुई थी। वह भी कोरी लफ्फाजी और जुमलेबाजी की चिलम भरते हुए ही जनमहत्व के विषयों पर नज़र आ रहीं है। शिक्षकों की दशा बद्दतर है, जिनके जिम्मे समाज निर्माण होता है। चिकित्सा को लेकर आँकड़े का ज़िक्र आगे होगा। तो कुछ ज़िक्र उन बातों का भी होगा। जिस आधार पर 2014 में सत्ताशीर्ष तक पहुँचने की आधारशिला रखी गई थी।

इन सब को देखने का नज़रिया आज ग्रामीण अंचल ही रहेगा, क्योंकि भारत की रहनुमाई व्यवस्था आज भले इसे आधुनिक भारत कहकर इठला ले, लेकिन आधार तो इसका ग्रामीण अंचल और किसान ही है। तो ज़िक्र पहले ग्रामीण चिकित्सा के दुर्दिन का। वर्तमान दौर में लगभग न्यू इंडिया में भी 70 फ़ीसद आबादी ग्रामीण अंचलों में रहती है, लेकिन डॉक्टर वहाँ पर 20 फ़ीसद भी उपलब्ध नहीं। दूसरे शब्दों में तीस फ़ीसद शहरी आबादी पर 80 फ़ीसद डॉक्टर हैं, लेकिन 70 फ़ीसद ग्रामीण आबादी पर 20 फ़ीसद डॉक्टर। जिसकी वज़ह ने विश्व गुरु बनते आधुनिक भारत में गांव-ग्रामीण लोग ईलाज समय पर मयस्सर न होने की वज़ह से अकाल मौत के आगोश में जा रहें हैं।

बात ग्रामीण अंचलों की हो रही। तो ज़िक्र दूसरे मुद्दे की भी होनी चाहिए। एक उक्ति से बात कहना बेहतर रहेगा। जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में , गांव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में। ऐसे में जिस डिजिटल इंडिया और आधुनिक होते भारत के 6 लाख 40 हजार 932 गांवों में बिजली पहुंच दी गई है। यह दावा वर्तमान रहनुमाई व्यवस्था कर रही। उसी के उलट एक आंकड़ा यह भी है, कि इन्हीं ग्रामीण अंचलों के 2 करोड़ 30 लाख घर आज भी ऐसे हैं, जहां बिजली नहीं है। आंकड़ों के मुताबिक जिन गांवों में बिजली नहीं है, उनमें सबसे ज्यादा गांव उत्तर प्रदेश के हैं, जहाँ एक करोड़ 20 लाख घर, असम में 19 लाख, ओडिशा में 18 लाख घरों में अगस्त 2018 तक बिजली नहीं पहुँची थी। फिर कुछ विशेष टीका-टिप्पणी व्यवस्था पर करने लायक बचती नहीं। यहां बात ख़त्म नहीं होगी लेकिन जिक्र गांव, ग़रीब और किसान का शुरुआत में हुआ। तो ज़िक्र एक पहलू का ओर, जिस ग़रीब किसान को मोबाइल सेवा और नई तकनीक से जोड़ने की बात व्यवस्था करती है। उसकी बखिया उधेड़ने का कार्य तो यह रिपोर्ट करती है। जो यह कहती है, कि किसान अधिकतर गांवों में रहते हैं और आज की परिस्थितियों में 45 हजार से ज्यादा गांव ऐसे हैं, जहां मोबाइल फोन की सेवा ही नहीं है। यह आंकड़े सरकार के ही हैं। इनमें सबसे ज्यादा गांव ओडिशा के हैं, जहां 9940 गांवों में मोबाइल फोन नहीं हैं। इसके बाद महाराष्ट्र के 6,117 और मध्य प्रदेश के 5,558 गांवों में मोबाइल फोन नहीं हैं। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि मोबाइल फोनों की संख्या बढ़ रही है लेकिन बहुत से गांव ऐसे हैं, जहां आज भी बिजली नहीं है और इन गांवों के लोग मोबाइल को चार्ज करने जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हैं।

इसके अलावा अगस्त 2018 को लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर के मुताबिक 1 करोड़ 70 लाख ग्रामीण घरों में से दो लाख 89 हजार घरों में पीने का प्रचुर पानी नहीं है और 62,583 गांव ऐसे हैं, जहां पानी दूषित ही उपलब्ध है। इसके अलावा जिस सड़क को अर्थव्यवस्था का आधार माना जाता है। इसके अलावा सरकार ने सन् 2000 में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की घोषणा की थी और वादा किया था कि देश के 1,78,184 गांवों में पक्की सड़क बना दी जाएगी लेकिन इनमें से 31,022 गांव ऐसे हैं, जहां आज भी सड़कें नहीं हैं। फिर क्या- क्या आँकड़े उपलब्ध कराएं रहनुमाई उदासीनता की, और इनके कोरी सियासी लफ़्फ़ाज़ी की। इसके अलावा एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर गांव के 14 से 18 वर्ष के लगभग 25 फ़ीसद युवा अपनी भाषा में लिखी बातें भी ठीक से नहीं पढ़ सकते। फिर ऐसे में बच्चे पढ़कर भी क्या करेंगे? यह कोई कहने-सुनने की बात तो नहीं।

ऐसे में अगर सच-मुच ग्रामीण अंचलों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ना है, तो पहली बात विकास की धारा गांवों की तरफ़ मोड़ना होगा। वैसे भी गांवों के बिना भारत की परिकल्पना एक आसमां से चांद लाने जैसा ही लगता है। तो ऐसे में ग्रामीण अंचलों में डॉक्टरों की फ़ौज बोई जाएं, चाहें इसके लिए पिछड़े इलाकों में ही क्यों न मेडिकल कॉलेज आदि खोलना पड़े। शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा, अगर बेहतर लोकतंत्र की व्यवस्था देखने का विचार किसी दल में है तो, सिर्फ़ योगी सरकार जैसे यह कह देने से कुछ नहीं होना, कि प्रदेश में प्रतिभा नहीं। अगर प्रतिभा है, नहीं तो इसके लिए जिम्मेवार भी व्यवस्था ही है। कोरी लफ्फाजी को त्यागकर गांव, ग़रीब और किसान के बारे मेंसियासतदानों को सोचने की आवश्यकता है। धर्म जाति, मज़हब के कांटों पर देश काफ़ी वक़्त चल लिया। इससे देश की तक़दीर और तस्वीर नहीं बदलने वाली। ऐसे में गांव और गरीब को सबल बनाने की दृढ़ इच्छाशक्ति रहनुमाई व्यवस्था को दिखानी होगी, तभी गांव, गरीब और किसान की स्थिति में बदलाव होगा, और वे आधुनिक भारत से क़दम ताल मिला सकेंगे वरना अदम गोंडवी जी की पंक्ति तो है ही, गांव की दशा अभिव्यक्त करने के लिए-

“तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं, यह दावा किताबी है।”

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896