कविता

हैं वानप्रस्थी बृद्ध हुए, बिना वन गए

हैं वानप्रस्थी बृद्ध हुए, बिना वन गए;
वालक सभी प्रयाण किए, ग्रहस्थी हुए !
ग्रह अपने वे बसाये, रहे संतति भाए;
मिलने को कोई आए, कोई खुद में समाए !
दम्पति अकेले अब हैं रहे, नेह पुन: कर;
साधना सेवा ईश सुमिर, आत्म रस निखर !
जाने रहस्य ज़िन्दगी के, सादगी समा;
कर स्वास्थ्य लाभ चक्र खिला, झिलमिला घुला !
आनन्द अनूठे में बहे, बन्दगी रहे;
‘मधु’ के प्रभु से मिलते जुलते, उमगे वे रहे !

गोपाल बघेल ‘मधु’