सामाजिक

हिन्दी का प्रयोग क्यों और कैसे

अपने ही देश में जब कोई अपनी ही मातृभाषा के विषय में दो प्रश्न पूछता है कि हिन्दी का प्रयोग क्यों करें और कैसे करें, तब निःसंदेह यह एक लज्जाजनक और दुखद स्थिति होती है। हमारी हिन्दी लगभग स्वतंत्रता के बाद से ही इन हास्यास्पद प्रश्नों को झेलती आ रही है। सच्चे मातृभाषा भक्तों ने समय समय पर हिन्दी से जुड़े विभिन्न प्रश्नों के उत्तर हर स्तर पर दिए हैं। भाषा के स्तर पर देखा जाए तो हिन्दी को जितनी अवहेलनाएं और विसंगतियों से गुजरना पड़ा है, उतना शायद ही किसी अन्य भाषा को सहना पड़ा हो। कहावत भी है कि जो जितना सक्षम और सशक्त होता है, परीक्षाएं भी उतनी ही देनी पड़ती हैं। हिन्दी को भी अनेक परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों से रुबरु होना पड़ा है, लेकिन सबसे निम्नस्तरीय प्रश्न यही होते हैं कि हिन्दी में काम क्यों करें और कैसे करें।

हिन्दी का प्रयोग क्यों करें के तीन सटीक उत्तर बनते हैं, जो निजी, संवैधानिक और वैश्विक आधारों पर दिए जा सकते हैं। पहला बिल्कुल सीधा और सरल उत्तर है कि हिन्दी हर भारतीय की मातृभाषा है। इसलिए उसका प्रयोग करना स्वतः ही बनता है। दक्षिण अफ्रीका के गांधी के नाम से प्रसिद्ध महान नेता नेल्सन मंडेला ने एक बार कहा था कि “यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जो वो समझता है, तो बात उसके मस्तिष्क में जाती है, लेकिन यदि आप उससे उसकी ही मातृभाषा में बात करते हैं, तो बात सीधे उसके हृदय तक जाती है।” अब यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उसे बात अपने मस्तिष्क तक पहुंचानी है अथवा हृदय तक। कुछ लोगों के मन में प्रश्न उठ सकता है कि अन्य भारतीय भाषाओं वाले मातृभाषियों के लिए हिन्दी मातृभाषा कैसे हो सकती है। उनका मानना होता है कि यह तो हिन्दी को उन पर थोपना हुआ। अक्सर थोपना जैसे चुभने वाले दारुण शब्द का प्रयोग हम सभी बड़ी सहजता से हिन्दी पर किसी लांछन की तरह लगा देते हैं। पर यह हिन्दी का बड़प्पन होता है कि वह भारतीय घर की उस बड़ी मौसी की तरह शांत मुस्कुराकर हर चुभने वाली बात को सहन कर लेती है, जो अपनी अन्य बहनों के प्रति कोई दुराव नहीं रखती। भारतीय परम्पराओं में मां और मां जैसी यानि मौसी को विशुद्ध समानता का अधिकार मिला हुआ है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में आपस में यही संबंध था और है और रहेगा। पारिवारिक उद्दण्डताओं वाले परिवार जन ही रिश्तों की मर्यादाएं लांघते हैं, वही भाषाओं के मामाले में भी है।

हिन्दी के प्रयोग को करने के प्रश्न का दूसरा उत्तर संविधान से जुड़ा है। किसी भी देश के संविधान में कही गई बातों का अनुपालन करना प्रत्येक नागरिक की प्रतिबद्धता मानी जाती है। भारत के संविधान के भाग-5, भाग-6 एवं भाग-17 में स्पष्टरुप से राजभाषा हिन्दी के प्रयोग से सम्बद्ध तथ्यों का विस्तृत उल्लेख किया गया है। इनका साररुप यही दर्शाता है कि संसद और विधानमंडलों से लेकर देश के प्रत्येक कार्यालय तक और हर नागरिक को अपने स्तर पर राजभाषा हिन्दी का सम्मान करना है। सम्मान के माध्यम कई हो सकते हैं, उसके यथोचित प्रयोग द्वारा अथवा उसके अधिकाधिक प्रचार प्रसार के द्वारा। यह उस भारतीय पर निर्भर करता है कि वह हिन्दी के प्रति इस संवैधानिक प्रतिबद्धता को किस रुप में स्वीकार करता है।

तीसरा उत्तर हिन्दी के वैश्विक प्रसार में समाहित है। हमारे यहां एक और कहावत बहुत प्रचलित है, घर की मुर्गी दाल बराबर। हमने भी विदेशी चकाचौंधों के वशीभूत होकर हमारी हिन्दी को किसी दाल की तरह ही बेस्वाद समझा, लेकिन उसमें छिपी प्रोटीन की पौष्टिकता को समझते हुए विश्व ने हमसे उसे छीन लिया। चीनी भाषा के बाद हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई। वहीं यदि विश्व आर्थिक मंच की बात मानें तो आज हिन्दी विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। भारत के बाहर फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है। इसके अलावा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में 685,170; दक्षिण अफ्रीका में 890,292; यमन में 232,760; युगांडा में 147,000; सिंगापुर में 5,000;  नेपाल में 8,00,000; न्यूजीलैंड में 20,000 और जर्मनी में 30,000 लोग विसुद्ध रुप से हिन्दी बोलते पाए गए हैं। जब वे विदेशी ससम्मान इसका प्रयोग कर सकते हैं, तो हमें यह प्रश्न पूछने में लज्जा आनी चाहिए कि हम हिन्दी का प्रयोग क्यों करें।

सम्भवतः यदि इस प्रश्न को पूछने वालों को इन तीन उत्तरों से संतुष्टि मिल जाती है और चूंकि देर बहुत हो चुकी होगी, तो हिन्दी को कैसे सीखें के प्रश्न पर अटकना पड़ेगा। लेकिन जहां चाह वहां राह की तर्ज पर हिन्दी का प्रयोग कैसे करें के भी अनेक आसान साधन उपलब्ध हैं। हिन्दी के प्रयोग को कैसे करें प्रश्न के भी तीन सबसे सरल उत्तर निजी, संवैधानिक और वैश्विकता से जुड़े हैं। निजी स्तर पर हिन्दी सीखना सबसे सरल है क्योंकि हिन्दी अपने बोलचाल वाले स्वरुप में इतनी सहज और सरल है कि उसे बहुत थोड़े समय में बोलने और समझने जितना सीखा जा सकता है। संवैधानिक स्तर पर हिन्दी सिखाने का उत्तरदायित्व भारत सरकार के गृहमंत्रालय के राजभाषा विभाग और उससे सम्बद्ध संस्थानों ने सम्भाल रखा है। आज के आधुनिक तकनीकी युग में हिन्दी के प्रयोग करने के समस्त तकनीकी औजारों जिनमें अनेक सॉफ्टवेयर और मोबाइल एप शामिल हैं के माध्यम से हिन्दी का प्रयोग करना सीखना बेहद आसान हो गया है। वैश्विक स्तर पर हिन्दी को सिखाने में इन्हीं हिन्दी टूलों का  विशेष योगदान रहा है। सोशल मीडिया के माध्यम से हिन्दी विश्व के कोने कोने में पहुंच गई है, जो हमें सोचने पर मजबूर करती है या कि कहीं प्रेरित सा करती है कि अब हमें इन दो महज मूर्खतापूर्ण प्रश्नों से स्वयं को उबारने की जरुरत है कि हिन्दी का प्रयोग क्यों और कैसे।

डॉ. शुभ्रता मिश्रा

डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली)द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्राके साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है। इसी वर्ष सुभांजलि प्रकाशन द्वारा डॉ. पुनीत बिसारिया एवम् विनोद पासी हंसकमल जी के संयुक्त संपादन में प्रकाशित पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न कलाम साहब को श्रद्धांजलिस्वरूप देश के 101 कवियों की कविताओं से सुसज्जित कविता संग्रह "कलाम को सलाम" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताएँ शामिल हैं । साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में डॉ. मिश्रा के हिन्दी लेख व कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं । डॉ शुभ्रता मिश्रा भारत के हिन्दीभाषी प्रदेश मध्यप्रदेश से हैं तथा प्रारम्भ से ही एक मेधावी शोधार्थी रहीं हैं । उन्होंने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से वनस्पतिशास्त्र में स्नातक (B.Sc.) व स्नातकोत्तर (M.Sc.) उपाधियाँ विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान के साथ प्राप्त की हैं । उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से वनस्पतिशास्त्र में डॉक्टरेट (Ph.D.) की उपाधि प्राप्त की है तथा पोस्ट डॉक्टोरल अनुसंधान कार्य भी किया है । वे अनेक शोधवृत्तियों एवम् पुरस्कारों से सम्मानित हैं । उन्हें उनके शोधकार्य के लिए "मध्यप्रदेश युवा वैज्ञानिक पुरस्कार" भी मिल चुका है । डॉ. मिश्रा की अँग्रेजी भाषा में वनस्पतिशास्त्र व पर्यावरणविज्ञान से संबंधित 15 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ।