कहानी

बांसुरीवाला

वह हर शाम को बगैर नागा किए ठीक उसी समय बांसुरी की मीठी तान छोड़ता जब गांव की लड़कियां, बच्चे या फिर बूढ़ी महिलाएं नीचे गहराई की घाटी से चढ़कर उस दिव्य पानी के चश्मे के इर्द-गिर्द आना शुरू हो जातीं। दिव्य चश्मे के सामने वाली ऊंची धार के बीच ही उसका छप्पर है। गांव बड़े पहाड़ांे के बीच निकलती नदी जो ऊपर बर्फ से लदी चोटियों से अपना जल इकट्ठा करती है, उसी एक चोटी की तलहटी में छोटी घाटी में बसा है। इस गांव के आगे कोई और मानव बस्ती नहीं हैं और आगे सिर्फ पहाड़ों और उनकी आसमान छूती चोटियों का बीहड़ है जो सिर्फ खास गद्दी जाति के लोगों के हौंसलों के सिवा किसी आम इंसान को आने का न्योता नहीं देता है। दिव्य चश्मे के पास जब भीड़ इकट्ठी हो जाती तो कोई बांसुरी वाले को आवाज़ लगाता, ”आ जाओ! प्यारे बांसुरी वाले हरनू! अपनी बांसुरी की मधुर धुन से चश्मे के जल में दैवीय शक्तियों से भरे खनिजांे का मिश्रण घोल दो। हे देवता के दिव्य चमत्कारों में बसने वाले बांसुरी वाले! तुम्हारे अहसान के लिए हम तुम्हारा अभिनंदन करते हैं।
फिर कुछ ही पल में मधुर धुन से घाटी में सवर लहरियां बिखरने लगतीं। जब हरनू की बांसुरी की मीठी धुन बजती, तो नीचे चश्मे का मीठा जल दो चट्टानों के मघ्य एक पतले बिंदु जैसे छिद्र से बरसता हुआ ऐसे नाचता जैसे किसी की शादी में मदमस्त हो गया हो। उस पानी की लहरें छोटे पत्थरों से टकराकर बारीक और महीन बूदों को चमकते हीरों में बदलने लगतीं। जंगल के झींगुर अपने शोर की धुन छोड़कर कोई नए उत्सव की धुन बजाने लगते। मिट्टी में दबे पेड़ों के बीज अंकुर बन फूटने लगते। जंगली फूलों की कलियां फूल बन अपनी सुंगध दूर बांसुरी वाले के पास हवा के झोंकांे के कंधों पर लाद देती। चोटी पर फैली चांदी सी सफेद बर्फ जल्दी से पिघलकर पहाड़ की तलहटी में उतरने को उतावली हो जाती।
वे सदियों से बहते दिव्य जल के झरने में परिवर्तित होकर अपने जीवन की साथर््ाकता में खो जातीं। महिलाएं व युवतियां इस जल को दैवीय प्रसाद के रूप में अपने घड़ों में भर-भरकर अपने घरों की ओर उतरने लगतीं। तंग घाटी से उतरकर महिलाएं और युवतियां बांसुरी वाले हरनू बाबा का धन्यवाद करती और अंधेरा होने से पहले अपने घरों तक पहुंच जातीं। इसके साथ-साथ लताएं व बेल बूटे बांसुरी वाले की झोंपड़ी की रोमांचक यात्रा को निकल पड़ते। सूखे पेड़ों की टहनियां टूटकर नदी में बहने लग पड़तीं ताकि वह प्रकृति प्रेमी उन्हें उठाकर अपने शरीर को ताप सके। सबके सब उस प्रकृति प्रेमी बांसुरी वाले पर न्योछावर होने को आतुर हो जाते। किसी मदहोशी में वे अपनी सुध-बुध खो चुके होते। जब वह कभी बड़े पत्थर पर बैठकर बांसुरी बजाता और जब उसकी भेड़-बकरियां चरने लगतीं, तो जैसे जंगल के हर फूल पत्ते अपने आप को स्वादिष्ट जड़ी-बूटियों में परिवर्तित कर लेते, ताकि उसकी बकरियों के पेट में जाकर धन्य हो जाएं। उन्हें अपने अस्तित्व के खोने का डर मिट जाता।
बांसुरी वाला बाबा जब कभी भी बांसुरी की धुन बजाना बंद कर देता, तो चश्मे का पानी सूख जाता। यह चमत्कार ईश्वर और बांसुरी वाले के सिवा सिर्फ उस गांव के बुर्जुगों को ही मालूम है। गांव तक कई घाटियों को लांघकर पहंुचा जा सकता था। पर अभी तक यह बाहर की दुनिया से कोसों दूर था। अभी यहंा सिर्फ देवता का राज चलता था। हर फैसला देवता के छोटे से मंदिर में किया जाता था। देवता के आशीर्वाद से गांव अपनी संस्कृति को बड़े देवदार के पेड़ों की छांव के नीचे संभालकर रखता आ रहा था। गांव के फलों के बगीचे जब अपने फलों को त्यागकर उन्हें जमीन के गर्भ में भेजकर कुछ आराम करते, तो गांव के युवा लड़के व लड़कियां अपने मां-बाप और बुजुर्गों संग अपने देवता को न्यौता भेजकर रात भर गान की तैयारी करते। देवता बाजों-गाजांे व ढोल-नगाड़ांे की अनोखी धुनों से सराबोर होकर गांव की ओर बढ़ता और अपने कंधों पर गांव के लोंगों की ख्वाइशों को पूरा करने के मंत्र उठा लाता, लोगों का विश्वास बढ़ता जाता।
देवता गांव में प्रवेश करने से पहले मीठे दिव्य पानी के नीचे स्नान की अपनी इच्छा व्यक्त करता। बांसुरी वाला जब आता तो धारा फूटती और मीठा पानी अपने अंदर असंख्य खनिजों को घोलकर देवता के पवित्र शरीर में कुछ बूदें रचा बसा देता। मीठे पानी का प्रसाद देवता के स्पर्श के बाद सारे गांव में बंटता। उस मीठे पानी के प्रसाद के बाद लोगों को लगता कि जैसे उन्होंने दैवीय अमृत ग्रहण कर लिया हो। वे खुशी से नाचने लगते। देवता भी साथ में नाचने लगता। उनको लगता कि देवता ने अपनी प्रसन्नता जाहिर कर दी है अब उन पर देवता का आशीर्वाद बरसता रहेगा। बांसुरी वाला फिर से मीठी धुन बजाता। रात भर नृत्य व गान चलता। अंधेरा गांव की ज़मीन में सपनों का बसेरा बुनता रहता। बांसुरी वाला देवता का बजंतरी तो नहीं, पर जब एक बार देवता वाद्य यंत्रों को बजाने वाले बजंतरियों और अपने कारकूनों के साथ अपने मूल स्थान की सैर करने जा रहे थे तो रास्ते में झौपड़ी में बसे गांव के ही एक नवयुवक बांसुरीवाले की बांसुरी की धुन सुनकर देवता नाच उठा था। वह तब तक आगे नहीं बढ़ा था, जब तक बांसुरी बजना बंद नहीं हुई थी। देवता के आदेश पर वह कभी-कभार किसी खास दिन व अब हर रोज देवता के नए मंदिर में बांसुरी बजाने आने लग पड़ा था।
जब उसकी भेड़-बकरियां अपने बाडे़ में आ जातीं तो वह बांसुरी की धुन छेड़ देता। जिस दिन से उसने देवता के मंदिर में हाजिरी लगाई थी। बस उसी दिन से उसकी झौंपड़ी के सामने के चश्मे की जलधारा में दैवीय गुण आ चुके थे। देवता की शक्ति का यह अदभुत संयोग लोगों की आस्था को बढ़ाने के साथ-साथ बांसुरी वाले के जीवन का एक सुनहरा पन्ना था। कुछ ही दिनों में इस अनोखे चश्मे की ख्याति दूर-दूर तक पहुंचने लगी थी। बांसुरी वाले की धुनों पर चश्मे के अमृतीय गुणों की चर्चा भी साथ में उड़ रही थी। जिन लोगांे ने इस दैवीय चश्मे के पानी को चखा, वे अपनी हर इच्छा को पूर्ण करते गए। इसी दैवीय चश्मे के अमृतमयी जल से उपजे चमत्कारों से देवता के प्रति लोगों की आस्था बढ़ती जा रही थी।
इस चश्मे के पानी का दुरुपयोग न हो इसलिए देवता के गुरों ने फैसला किया और फरमान सुना दिया, ”देवता की मर्जी है कि कोई भी इस दुर्लभ चश्मे के दैवीय गुणों की चर्चा बाहर के किसी व्यक्ति से न करे, वर्ना इसके दैवीय गुण नष्ट हो जाएंगे और देवता रुष्ट हो जाएगा।“ यह फरमान लोगों ने पल्ले बांध लिया। गांव खुशहाली से अपना कार्य करता रहा। जौ की खेती होती, आलुओं की खेती होती। मक्की भी खेतों में लहराती। भेड़-बकरियां और देशी गाय बहुत से घरों में थी। जो बेहलड़ होता या फिर जिसके पास जमीन कम है वह तंग घाटी के इर्द-गिर्द के इलाके से जड़ी-बूटियां इक्ट्ठी करते और उन्हें ठीक-ठाक सुखाकर दूर पहाड़ों के दूसरी ओर बसे गांवों तक भी बांट आते। बदले में वे जीवन उपयोगी चीजं़े ले आते।
फिर एक दिन क्या हुआ कि वही मीठे पानी का चश्मा जहरीले तेज़ाब में बदल गया। किसी राहगीर ने उसी मीठे पानी को पीया, तो उसका स्वाद उसे ज़हर से ज्यादा भयानक लगा। उसने पानी को चखा और मुंह में डालते ही बाहर फैंक दिया। गांव की औरतों का झुंड शाम को जब पानी भरने आया, तो बांसुरी वाले ने धुन नहीं बजाई, फिर भी औरतों ने घडे़ भरे। एक ने अंजुली भरकर पानी पीया, तो मारे ज़हर जैसे स्वाद से बोल बैठी, ”हे भगवान! हे पहाड़ के देवता!ये क्या हो गया? इस अमृत जैसे पानी का स्वाद तो ज़हर से भी कड़वा हो गया है।“ सब औरतों व लड़कियों ने आस-पास का निरीक्षण किया कि कहीं कोई जानवर तो नहीं मरा है जिसके शरीर की सड़न ने पानी को दूषित कर दिया हो, पर ऐसा कुछ नहीं था। गांव के लड़कों ने आसपास के सारे इलाके को छान मारा, पर कुछ नजर नहीं आया। सब घड़े खाली के खाली रह गए। गांव की औरतों ने घर आकर ये दुःख भरी खबर पहुंचा दी। पूरा गांव हैरान परेशान था। गांव के बुजुर्गाें ने पानी का निरीक्षण किया, वह अभी भी ज़हर जैसा कड़वा था। पानी का लोटा भरकर शाम को गांव के देवता के घर हाज़िरी लगाई गई। देवता ने किसी प्रश्न का जवाब नहीं दिया। गुर बड़ी देर देवता के आदेश को अन्तध्र्यान होकर सुनता रहा, पर उसे कुछ सुनाई न दिया।
कुछ समय के बाद देवता के गुर ने अपना ध्यान खोला। ”बांसुरीवाले के मन में अभिमान का पौधा अकुंरित होने लगा है। ये पौधा धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लग पड़़ा है। वह उसके मन की छांव में पलने लगा है। बस वह अब यह सोचने लग पड़ा है कि जैसे उसकी ही बांसुरी की धुन से पानी का अमृत सा स्वाद बन जाता है, चश्मे की धारा फूट पड़ती है। वह सोचता है जैसे किसी देवता की शक्तियां उसके शरीर में समा गई हो, अब यही शक्तियां यह सब कमाल करने लगी हैं।“ देवता के गुर ने देवता का अगला आदेश सुनाया, ”बांसुरीवाले बाबा को बुलाओ, उसके मन में अभिमान के उगते पौधे का विनाश करना होगा, वर्ना गांव कभी दैवीय जल प्राप्त नहीं कर पाएगा। बांसुरीवाले को देवता के पास लाया गया। बांसुरीवाला बाबा देवता के चरणों में आंसुआंे की धारा बहाने लगा। वह बोला, ”हे ईश्वरीय सत्ता के मालिक देवता! मुझे अपनी भूल स्वीकार है, परन्तु मैं मानवीय गुणों से बंधा इंसान हूं, मुझमें भी इच्छाओं का प्रबल वेग बहने लग पड़ा है। मुझे अब अभिमान के संग आम इंसानों की जिंदगी जीने की चाहत पैदा हो गई। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें, वर्ना मैं अपने मन में फैलते द्वंद से नहीं निकल पाऊंगा। मैं अपने दैवीय कर्म निभाने से थक चुका हूं। मैं अब घर बसाना चाहता हूं। अपनी भेड़ बकरियों की एक मालकिन लाना चाहता हूं।“
देवता ने अपने गुर के रूप में कहना शुरू किया, ”नहीं बालक! तुम अपने दैवीय फर्ज से मुंह नहीं मोड़ सकते। तुमने इसी मंदिर में ईश्वरीय प्रमाणों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए व चश्मे के अस्तित्व को बरकरार रखने की जिम्मेवारी अपने कंधों पर ली थी और आजीवन यह दैवीय कार्य करने का प्रण खाया था। अब अगर तुमने इस कार्य से मुंह मोड़ लिया तो गांव देवता की सत्ता के प्रमाणों का भूल जाएगा। यह गांव संस्कारहीन होने शुरू हो जाएगा। यह गांव बाहरी कलयुग की सत्ता के अधीन आ जाएगा। तुम विचार कर सकते हो, तुम देवता के आशीर्वाद से बांसुरी वाले बाबा से एक साधारण देहाती बनने के लिए क्यों आतुर हो। तुम्हारा अस्तित्व का नाश हो जाएगा और साथ में देवता के प्रति लोगों की आस्था को प्रमाणित करने के लिए कई चमत्कार धूमिल होते जाएंगे। देवता अब कलयुग के प्रभाव से वैसे भी शक्तिविहीन होने लग पड़ा है तुम भाग्यशाली हो, जो आने वाली पीड़ियां तुम्हें ईश्वरीय प्रमाणिकता के फैलाव के लिए पूजेंगीं। उठो वत्स! अपने मन में फिर से अपनी भक्ति को याद करो। देवता के आशीर्वाद को यूं न ठुकराओ। जन मानस के कल्याण के लिए अपनी मन की दूषित वृतियों का नाश करो।“ बांसुरीवाला अपने मन में उठे तामसिक विचारों से निकलने में असमर्थ होता गया। देवता ने अपने गुरों को कुछ समय रुकने का आदेश दिया।
बांसुरीवाला आदमी झांेपड़ी नुमा छप्पर में वापिस आया। शाम का समय आ चुका था। महिलाओं ने अपने खाली घडे़ चश्में के इर्द-गिर्द इस आस में रखने शुरू कर दिए थे कि शायद अब मीठा दैवीय पानी बरसना शुरू हो जाएगा। बांसुरी वाले को महिलाओं ने आवाजे़ं लगानी शुरू कर दीं, पर वह अभी द्वंद्व में था। वह विचारों से ज्वर ग्रस्त था। उसने सब अनसुना कर दिया। वह छप्पर से बाहर नहीं निकला। महिलाओं में दो-तीन ने फिर से पानी को चखा। वह फिर ज़हर जैसा कड़वा था। वे बड़ी देर तक चिल्लाती रही। किसी ने कहा, ”हे रुष्ट देव भक्त, बांसुरी बजाओ हम तुम्हारी मधुर बांसुरी की धुनों को तरस रहीं हैं। जिद्द मत करो, हम पर अहसान करो। हे कर्म-धर्म से भटके बाबा, हम तेरे सच्चे कर्मों के अहसान मंद होंगे। हमारा गांव तुम्हारा कर्जदार है। देवता के आदेश का पालन करो। अगर तुम यूं ही रूठे रहे, तो हमसे देवता भी रूठा रहेगा। हमारे बच्चे इस स्वादिष्ट जल को फिर कभी पी नहीं पाएंगे। हमारा गांव उजड़ जाएगा। देवता हमें छोड़कर स्वर्ग वापिस चला जाएगा। हे पवित्र आत्मा! अभिमान न करो, अपनी नव निर्मित इच्छाओं का त्याग करके इस मानव जाति पर अहसान करो।“
बांसुरी वाला सब कुछ सुनता रहा, पर टस से मस नहीं हुआ। वह अपने छप्पर में अंदर चला गया। महिलाओं ने विलाप करना शुरू कर दिया, उनकी आंखों से आंसूओं की नदियां बहने लगीं। वे अंदर से तड़फ उठी। फिर वे हताश मन के साथ वे अपने घरों की ओर लौट गईं। बांसुरीवाला भी दुखी मन से सो गया। उसे रात भर स्वप्न आता रहा कि देवता उससे नाराज़ हो चुका है। पूरा गांव पलायन करने लग पड़ा है। सब लोग देवता की पालकी को कंधे पर उठाकर देवता के पीछे-पीछे गांव छोड़कर जाने लगे हैं। सब लोग रो रहे थे। देवता ने आखिरी बार उसके छप्पर के पास रुकने का आदेश दिया। देवता ने एक पल उसके छप्पर की ओर दृष्टि डाली और फिर गुर, देवता और गांव बुझी आशाओं से पलायन कर गए। चश्मे का पानी सूख गया। देवता की पालकी के दूर जाते ही गांव में चील-कौओं के झंुड के झुंड मंडराने लगे। मूसलाधार बारिश होने लगी। बादलों में बिजली ऐसी कड़की कि जैसे वह गांव के हर घर को स्वाहा करना चाहती हो। फिर बादल फटा और पूरा का पूरा गांव पहाड़ की गर्त में बहता गया। अब सिर्फ उसकी ही झौंपड़ी बची थी। वह बिल्कुल अकेला था। पूरी रात गांव के निशान ढूंढता रहा पर उसे कुछ बचा दिखाई नहीं दिया। वह सुबह उठा तो सबसे पहले गांव की ओर दौड़ा। वह कोई दो कोस का सफर पलों में कर गया। बड़े-बड़े देवदारों की जड़ांे ने उसके रास्ते को नहीं रोका। नीचे उतरते ही पहाड़ की तलहटी पर पहले जैसा गांव देखकर उसकी सांसों में सांस आई।
वह सीधा देवता की चैखट पर पहुंचा और नतमस्तक होकर बोला, ”मुझे अब सब मंजूर हैं, मैं अब अपने जीवन को देवता के चरणों में समर्पित करता हूं। देवता के आदेश को गुर ने सुनाया, ”नहीं वत्स! देवता ने अपना विचार बदल दिया है। देवता का कहना है कि वह सामाजिक प्राणियों पर अपनी इच्छाओं को नहीं थोप सकता। देवता कलयुग की भविष्यवाणी में पूरी रात अंतध्र्यान रहा है। अब देवता तुम्हें मोह माया के साथ भी अपनी सेवा का न्योता दे रहा है। तुम शादी करो और अपने होने वाले बेटे को भी बांसुरी की धुनों की सिखाओ। चश्मा फिर से दैवीय जल बरसाना शुरू कर देगा। भविष्य में अभी और घटनाएं हो सकती हैं। तुम अपने आप को आत्मग्लानि से न भरो, ये सब देवता का ही प्रंपच है। इसलिए मन से बोझ उतारकर नए जीवन की खुशी के साथ बांसुरी बजाओ। चश्मा तुम्हारा इंतजार कर रहा है।“
बांसुरी वाला देवता के आदेश को मानकर खुशी-खुशी मन में नए जीवन के स्वप्न पालते हुए बांसुरी बजाने लगा। चश्मे से मीठे पानी की धारा फूट उठी। गांव की औरतें फिर से मधुर जल के घड़े भरकर बांसुरी वाले और देवता का धन्यवाद करते हुए खुशी से नाचने लगी। देवता के मंदिर में घंटियों की आवाजंे़ गूंजने लगी। देवता के सामने पूरी रात गांव की औरतें खुशी से नाचती रही। देवता की जय-जयकार होती रही। गांव फिर से खुशहाली के गीत गाने लगा। देवदार का घना जंगल मस्ती में झिंगूरों के शोर में लहलहाने लगा।
हर वर्ष दिव्य चश्मे के पास मेला लगता। आसपास के कई गांवों के गद्दी लोग दिव्य चश्मे के दर्शन और प्रसाद रूपी अमृत को चखने आते। देवता दिव्य चश्मे के जल में स्नान करता और वाद्य यंत्रों की मधुर तान के संग बांसुरी की मीठी धुन सुनकर आसपास की घाटियों को जीवन में सच्चाई, भाईचारे और प्रकृति प्रेम की शिक्षा देता। गांव के बुजुर्ग देवता के मंदिर के प्रांगण में बैठकर बस यही कहते कि अगर गांव को हमेशा आबाद रखना है, तो आने वाली नस्लों को भी उसी मीठे पानी के चश्मे से पानी पिलाना, वरना ये आने वाले कलयुग में सब सभ्यताएं और संस्कृतियां भूल जाएंगे। देवताओं के आशीर्वाद को भूल जाएंगे। उनके धर्म का नाश हो जाएगा। उन मन कलयुग के प्रभाव में आधुनिकता के ज़हरीले सपने पालने लग पड़ेंगे। वे पथ भ्रष्ट हो जाएंगे उनकी समझ नष्ट हो जाएगी। बुजुर्ग देवता के चरणों में हमेशा आशीर्वाद बरसाने की प्रार्थना करते।
बांसुरीवाले की शादी हो चुकी थी। शादी के अगले दिन से ही दिव्य चश्मे ने प्रसाद रूपी अमृत बरसाना बंद कर दिया। दो वर्ष बीत गए। बांसुरीवाले की पत्नी उससे कहती, ”अब जब देवता की मर्जी होगी तो ही सब मंजूर होगा, घर खुशियों से गूंजेगा। बस मंदिर में देवता की सेवा में कभी न छोड़ना, इसके आगे हम सुनहरे भविष्य का इंतजार करंेगे।“ बांसुरीवाले के घर नन्हा बालक जन्म ले चुका था। उधर फिर से बांसुरी की धुन मीठे पानी को बरसाने के लिए तैयार हो रही थी। प्रकृति नए रंग में रंगने को तैयार थी। उम्मीद की खिड़की से नए सूर्य की रोशनी बरसने के लिए तैयार हो रही थी। निराशा का दौर दूर पहाड़ की ऊंचाई से दूसरी ओर उतर चुका था। वह अब शायद ही फिर से पहाड़ चढ़कर इस ओर उतरे।
गांव के लोगों को गांव के देवता ने दिव्य स्वप्न फिर से दिखाने शुरू कर दिए ताकि वो फिर से अपनी संस्कृति व आस्था की जड़ों से जुडे़ रहें और अपना रास्ता न भटके। गांव वाले के स्वप्नों में दिव्य मीठे पानी का स्वाद मृगतृष्णा बनकर दूर क्षितिज तक फैले रेगिस्तान में नज़र आने लगा। गांव वाले को बांसुरीवाला नन्हा बालक कृष्ण रूप में बांसुरी बजाता नजर आने लगा। उस बंासुरी वाले नन्हें फरिश्ते के पीछे सैकड़ों दिव्य झरने दौड़े चले आ रहे हैं। सूखे मन की घाटियों में देवता के मंदिर की घंटियों की सुरीली आवाज बांसुरी की मीठी तान पर नाच गा रही हंै। पूरी कायनात के वाशिदें इन दिव्य झरनों में गोते लगा रहे हैं, वे मस्ती में स्वर्ग की ओर रास्ता बना रहे हैं। ऋतुओं के बदलने की खबर देने वाले पंछी पीऊ-पीऊ गा रहे हैं। करोड़ांे वन्य जीवों के झुंड इंसानों के पीछे-पीछे दिव्य झरनों के रस का स्वाद चखकर स्वर्ग के रास्ते की ओर अपनी आंखें गढ़ा रहे हैं। नीले आकाश में करोड़ांे सितारों की मालाएं बांसुरी वाले के गले में सजने को भागम-भाग कर रही हैं।
बांसुरीवाला बालक फिर लोगों के बहुत करीब आ जाता है और फिर एक झौंपड़ी में घुसते ही विलुप्त हो जाता है। बांसुरीवाले का नन्हा बालक अब धीरे-धीरे वादियों की हवा की खुराक से, पहाड़ों के ऊपर बरसते दिव्य जल से काली मिट्टी में उपजे दिव्य जड़ी बूटियों की खुशबु से अपने शरीर को नौजवान बनाने में लगा था, ताकि उसके हौंठों में वह जान आ जाए, उसके अनमोल फैंफड़ों में हवा भरने का दम आ जाए ताकि वही फेफड़े जीवनदायिनी हवा को बांसुरी के महीन छेद से निकाल सके और फिर एक मधुर धुन वादियों की हवा के रथ पर सवार होकर मीठे झरने के जिद्दी मन तक व कानों तक पहुंच सके। फिर वह सोया हुआ झरना दिव्य मीठा जल बरसाएगा और फिर से आस्था और संस्कृति का प्रवाह शुरू हो जाएगा। हरनू और उसका बेटा जिंदगी के देवालय में प्रवेश कर चुके थे। नन्हें हाथों में बांसुरी भंेट करने से पहले हरनू अपने बेटे देवनू को साथ लेकर देवता के देवालय पहुंचा और फरियाद में बोला, ”हे देवता! हे हमारे राजा! हम पर आशीर्वाद बनाए रखें। जिस धार्मिक कार्य को करते रहने में मेरे पांव कई बार फिसले, उसमें मेरा बेटा कभी न फिसले, कृपया अपना आशीर्वाद दें, आपके कहे अनुसार मैं जा रहा हूं, पर आपके आशीर्वाद से यह नन्हा बांसुरीवाला भी वह अद्भुत शक्ति पा सके, जो आपने मुझ नाचीज को बक्शी है, कृपया अपनी अद्भुत शक्ति इस नन्हें बालक पर बरसाएं, ताकि यह देवता की शक्तियांे को प्रामाणिकता को दूर घाटियांे तक फैलाए, और आस्था और संस्कृति को आगे बढ़ाने में हमारा मददगार बने।“ देवता के गुर ने देवता के आशीर्वाद की पुष्टि की। देवलु और कारकूनों ने देवता की जय-जयकार की।
माघ महीना शुरू होते ही गांव का देवता स्वर्ग प्रवास पर चला गया। देवालय के कपाट बंद हो गए। देवता के आदेश से बजंतरी अपने वाद्य यंत्रों के जरिये अपनी सेवा में तड़के हाजिर हो गए। बांसुरीवाला नन्हा बालक अपनी छोटी सी बांसुरी संग अपने पिता का हाथ पकड़कर देवालय के बाहर ब्रह्ममुहूर्त में लोगों के साथ देवालय तक पहुंचा। पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ बांसुरी की धुन बजी, दूर दिव्य झरने का पानी बरसने लगा, लोगों ने जय-जयकार लगाई। बांसुरीवाले नन्हें बालक पर दैवीय कृपा बरस चुकी है। फाल्गुन माह की संक्रांति को जैसे ही देवता देवालय लौटे, तो अपने गुर के माध्यम से भविष्यवाणी करने लगे। गुर बोले, ”तुम गांव के लोगांे ने देवता पर अपनी आस्था के अनुसार देवता के आदेशों का पालन किया, फलस्वरूप तुम्हारे खेत खलिहानों में अन्न के भंडार तैयार होंगे, तुम्हारे बगीचों में मीठे रस से परिपूर्ण फल लगेंगे, घाटियां फूलों से लद जाएंगीं। उन दिव्य फलों की खुशबू से तुम्हारे अंदर नई चेतना, नई उमंग का संचार होगा। बस जब तक तुम्हारी आस्था और परम्पराएं जीवित रहेंगी, तुम पर दिव्य झरने का मीठा जल बरसता रहेगा। बस इस बात का ख्याल रखना कि मन की शुद्धता और पराए लोगों के बहकावे पर अपने सपनों पर किसी और का अधिकार मत होने देना। तुम सब सुखी हो, ये बात तब तक तुम्हारे मनों में जीवित रहेगी जब तक तुम्हारी इच्छाओं में भी शुद्धता बरकरार रहेगी। फिर वक्त क्या होगा, ये वक्त पर छोड़ देते हैं।“ गांव वालों ने देवता की जय-जयकार की।
वक्त ने नन्हें बांसुरीवाले को एक नौजवान बना दिया। देवता प्रवास पर कई बार गए और हर बार अपनी दिव्य भविष्यवाणियों के अद्भुत फल से गांव वालों का उद्धार करते रहे। देवता एक बार फिर स्वर्ग प्रवास पर निकले और देवता के कारकूनों ने भूमि आसन लगा लिया। बजंतरियों ने वाद्य यंत्र बजाते हुए देवता की गुप्त सेवा शुरू कर दी। बांसुरी वाले नवयुवक में कुछ विभिन्न तरंगों का प्रवाह बहने लगा, उसे लगने लगा कि अब शिखर पर ज़मी सफेद बर्फ फिर से वापिस न आएगी, शिव भी कहीं दूर चले जाएंगे, देवता स्वर्ग के प्रवास से नहीं लौटेंगे, नदी में अब जल नहीं, इच्छाओं के टूटे तिनकों का प्रवाह बहेगा। चहुं ओर पाप के ढेर लग जाएंगे, घाटी सूनी सिर्फ नमकीन आसुंओं की धाराएं बनाएगी, चुनौतियों के सागर से इंसान जीत न पाएगा, इंसान दूसरे के बहकावे भरे सपनों में जीना शुरू कर देगा, जीवन का संपूर्ण केंद्र निहित स्वार्थो का जंजाल बन जाएगा।
एक जादूगर दूर पहाड़ों को अपने हिम्मती व प्रंपच भरे ख्यालों से लांघता आ रहा है। वह हर पहाड़ को जैसे ही लांघता है उसका आकार बड़ा होता जाता है। उस जादूगर के पास एक सपनों की बड़ी सी पोटली है, वह हर किसी को अपनी पोटली से सपने बांट रहा है, वे सपने उसने अपने सम्मोहन के साथ बांटने शुरू कर दिए हैं। लोगों का मन अपने पारंपरिक सपनों को तुच्छ समझना शुरू कर चुका है और उस जादूगर के बांटे सपनों को अपने शरीरों में डालकर छुपा कर रख रहे हैं। लोगों को नए सपनों को पाकर एक अद्धित्य नशे का अहसास हो रहा है, वे मस्ती में झूमने लग पड़े हैं।
वह निरन्तर पहाड़ दर पहाड़ चढ़कर व उतरकर घाटियों में बिखरे लोगों को अपने सपने बांटने वाला जादूगर देवालय के आस पास कुछ दिन मंडराता रहा, कभी रात के अंधेरे में छिप जाता तो सुबह ब्रह्ममुहूर्त में बजंतरियों से भी पहले आकर देवालय के बाहर मधुर व आस्थामयी देवता की स्तुति पर हंसता, कभी उसका शरीर सूक्ष्म बन जाता और वह गांव के भोले-भाले लोगों के मन के घोडे़ पर सवार होकर उन्हें ऐसी दुनिया की ओर ले जाता, जहां सपनों का एक और गांव है जो इस गांव से बिल्कुल अलग है। वहां न खेत-खलियान है और न ही वहां कोई खेत में अपने शरीर की निचुड़ चुकी बँूदों सेे माटी की सूखी प्यास को तृप्त कर रहा है, वहां सब ठाठ से नए किस्म के घोड़ांे को समतल हुए पहाड़ांे पर दौड़ा रहे हैं। जहां नदियां सूखकर अपने चेहरो को शर्मिंदगी से छिपा रही है, जहां हरे भरे पेड़ कफनों में लिपटकर अपने लिए चिता की आग भीख में मांग रहे हैं, जहां शिखर हाथ जोड़े मैदानों के सामने अपने अस्तित्व के दान की अपेक्षा से गिड़गिड़ा रहे हैं। जहां देवता भी शक्तिविहीन होकर किसी राक्षस से हारकर अपनी जिंदगी को पश्चाताप में बिता रहे हैं। वहां अब इन्सान शक्तिशाली बनकर अपनी प्रजा के लिए नए फैंसलों का बाजार सजा रहे हैं। दूर दिव्य झरने का पानी बरसना बंद हो गया।
गांव वालों ने बांसुरीवाले को अपने बेटे को समझाने को कहा। कोई बोला, ”उसे समझाओ! अभी कलयुग नहीं आया है, उसने अभी से बांसुरी बजाना क्यों बंद कर दिया। उसको भ्रम हो गया है, अभी हमारी संस्कृति और आस्था में किंचित भी परिवर्तन नहीं आया है, तुम क्यों हमसे रूठ रहे हो! बांसुरी बजाओ, हमें मीठा जल पीना है।“ नौजवान लड़का अपनी पत्थरों की झौंपड़ी से बाहर निकला। उसने दूर शिखरों की ओर नज़र दौड़ाई, फिर कुछ पल आखें बंद करके खड़ा रहा, वह फिर बांसुरी उठाकर झरने की ओर उतरने लगा। झरने के शिखर के नीचे खड़े होकर वह बोला, ”देखो माताओ! मैं जो कुछ कह रहा हूं वह देवता के आशीर्वाद से ही कहूंगा। समय आ गया है कि अब यह मीठे पानी का झरना अमृतमय जल नहीं बरसाएगा। समय बदल रहा है, तुम बदल रहे हो, तुम्हारे मनों में परिवर्तन आ चुका है। मेरे बांसुरी बजाने से भी अब कुछ नहीं होगा।“ एक नौजवान बांसुरीवाले की बातांे पर किसी भी महिला को विश्वास नहीं हो पा रहा था। वह उस नौजवान की ओर गौर से देखकर बोली, ”ऐसा मत कहो, दिव्य आत्मा, ऊपर देखो, शिखरों पर बर्फ अभी भी पिघल रही है, घाटियों में अभी भी करोड़ांे पेड़ लहलहा रहे हैं तो फिर तुम किस परिवर्तन की बात कर रहे हो? मेरे हौंठ मीठे दिव्य जल के बिना सूख रहे हैं, मैं जब से इस दिव्य झरने के जल को पी रही हूं मुझ पर अभी तक किसी अपवित्र रोग का साया भी न पड़ा, मेरी औलादें भी इसी जल से सिंचित हो रही हैं। तो तुम क्यों परिवर्तन का बहाना बनाकर अपने दैवीय मार्ग से विचलित हो रहे हो, उठो वत्स! एक बुढ़िया की फरियाद पर बांसुरी बजाओ, मेरे हौंठ सूख चुके हैं और मैं अब साधारण जल से अपनी प्यास नहीं बुझा सकती।“
बांसुरीवाले नौजवान ने कहा, ”देखो माता कुछ तो हो रहा है इस सृष्टि में जो ये सब करने से रोक रहा है। इससे पहले भी मेरा बाप बांसुरी बजाना छोड़ चुका था, और उसका कारण भी तुम्हें पता होगा, मेरे मन में अभी तक कोई भी अपवित्र ख्याल नहीं आया है, पर मुझे लग रहा है अब कोई बुरी शक्ति हमें इस दिव्य जल से वचिंत करना चाहती है। मैं अपने मन में उठे हज़ारों विचारों से जकड़ गया हूं, मेरी मति भ्रम हो गई है। तुम लोग अभी भी महत्वाकांक्षी बनकर दिव्य जल की आस लगाए बैठे हो, पर अब ऐसा नहीं होगा। हमारे आकाश पर हमारे शिखरों पर, हमारी वादियों में एक नए किस्म की हवा ने प्रवेश कर लिया है और वह हवा हमारी पुरानी हवा के ऊपर अपना दवाब बना चुकी है। हमारी पुरानी हवा उस हवा के साथ धुल मिल गई है वह अपनी वास्तविक प्रवृत्ति भूल गई है। तुम जो दूर शिखरों पर जमीं बर्फ का गुणगान कर रही हो, जबकि मैं किसी और ही दृश्य को देख रहा हूं।
जब शिखर पर बर्फ फिर से वापिस आएगी तो वह पिघलने के लिए उतावली नहीं होगी, वह धाराओं में नदी की ओर और अंततः सागर को समर्पित होने को नहीं ललचाएगी। वह बर्फ पिघलकर बहने की अपनी नैसर्गिक प्रक्रिया को अपने अंदर की इच्छा से निकाल देगी। वह बहने, कहीं पहुंचने, इस दुनिया की ज़मीन पर फैलने, खुले आकाश के नीचे सागर बनने के जुनून को त्याग देगी। वह कुंठित होकर अपने लक्ष्य को छोड़कर सिर्फ जड़ चट्टान की तरह रहना शुरू कर देगी तो फिर मैं कैसे अपनी बांसुरी की धुन से दिव्य झरने को फिर से बह उठने का आग्रह कर सकता हूं। मुझे मालूम है कि तुम लोगों को न तो मेरी बातंे समझ आएगीं और न ही तुम समझ पाओगे। मैं फिर भी तुम्हारे सामने बांसुरी की धुन बजा रहा हूं वो भी सच्चे मन से, तुम खुद ही देख लो कि मेरी बातों में सच्चाई है कि नहीं।“ और फिर उस बांसुरीवाले युवक ने मीठी धुन छेड़ दी।
बांसुरी की धुन में इतनी मिठास थी कि निश्चित ही अगर झरने के ऊपर का शिखर अपनी उदात्तता दिखाता, जैसे साक्षात शिव हिम से आच्छादित शिखर पर अपनी विश्व-कल्याण की मूर्त में बैठे रहते हुए हमेशा हिम को पिघलाकर बहने का सपना बांटते, उसे नदियों में बहने की उड़ान देते, पर यहां पानी दिव्य झरने में बहना नहीं चाह रहा था। घाटियों उत्सुक मन से झरने के बहने का इंतजार करती रहीं। बूढ़िया के सूखे हौंठ, नवयुवतियों की पथरीली आशाएं सब बिखरती रहीं। बांसुरी की धुन पर झरने से पानी बहना शुरू नहीं हुआ। निंरतर प्रवाहमान जल, जीवन शिखर से जुड़ा जल, मोक्षदायिनी अद्भुत शक्ति को छिपाए दिव्य जल सदा के लिए विश्राम मय हो चुका था।
कुछ दिनों के बाद बंासुरीवाला युवक कहीं दूर शिखरों की एक बड़ी श्रंृखला के पार जा चुका था। गंाव सिर्फ अब विकास के सपने को हकीकत में बदलने पर केंद्रित हो चुका था। गांव आधुनिकता के सपने के लिए दिव्य झरने के अस्तित्व की बलि ले चुका था। गांव के लोगों ने आधुनिकता और दिव्य झरने में से किसी एक आधुनिकता को चुन लिया था। गांव के देवता के चमत्कारों से उपजी सांस्कृतिक व परम्परागत मूल्यों के सृजन की चिंता से अब गांव बहुत आगे निकल चुका था। बंासुरीवाला युवक अपनी बांसुरी की धुनों के दम किसी और प्रकृति के दिव्यरंग में समाए गांव की तलाश में निकल चुका था। वह यह समझ गया था कि प्रकृति और ईश्वरीय शक्तियों का प्रवाह परमपरावादी तो है ही साथ में यह विज्ञान सम्मत स्वरूप भी है। आधुनिकता उसे कभी नहीं समझ पाएगी। कुदरत हमेशा हमसे परम्परावाद की भीख मागेंगी। बस हम अब यह अनमोल विरासत कभी उसे नहीं दे पाएंगे।
संदीप शर्मा

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857