धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मन को वश में करना कठिन है परन्तु इसकी साधना आवश्यक है

ओ३म्

मनुष्य का मन ही बन्धन मोक्ष का कारण है। यह दर्शन शास्त्र का वचन है और यह सत्य सिद्धान्त है। मनुष्य जो भी कर्म करता है वह शुभ व अशुभ होने से दो प्रकार के कहे जाते हैं। शुभ कर्म करने का परिणाम शुभ व सुख होता है और अशुभ कर्म पाप कर्म कहे जाते हैं जिनका परिणाम वर्तमान, भविष्य एवं परजन्मों में दुःख होता है। यह बात हमें वेद व ऋषियों के सत्य शास्त्रों को पढ़ने से ज्ञात होती है। संसार में भी देखते हैं कि शुभ व सत्य कर्मों की सभी ओर से प्रशंसा की जाती है। सरकार ने जो दण्ड संहिता बनाई है उसमें शुभ, सत्य व अच्छे कर्म करने पर दण्ड नहीं दिया जाता अपितु उसे पुरस्कृत कर उसकी प्रशंसा की जाती है। उसका सार्वजनिक रूप से सम्मान भी किया जाता है जिससे उसका प्रभाव अन्य लोगों पर पड़े और दूसरे लोग भी शुभ व अच्छे कामों को करने में प्रवृत्त हों। दूसरी ओर कोई मनुष्य झूठ बोलता है, चोरी करता है, अपशब्द बोलता है, लड़ाई-झगड़े करता है, दूसरों का धन छीनता है, अकारण दूसरों को पीड़ा देता है, छोटे-बड़े व अस्पर्शयता आदि का व्यवहार करता है, सरकारी कर की चोरी करता है तो वह समाज में अच्छा नहीं माना जाता और उसे देश के कानून के अनुसार भी दण्ड मिलता है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सद्कर्मों का प्रेरक, सबका प्रत्येक क्षण का साक्षी, सर्वशक्तिमान, अनादि व अनन्त स्वरूप वाली सत्ता है। उसका नियम है कि मनुष्य सत्य को ग्रहण करे और असत्य का त्याग करे। सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य व असत्य का विचार करके करे। वह सब से प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करे। सभी मनुष्यों को अविद्या का नाश करने में प्रयत्नशील रहना चाहिये और विद्या, ज्ञान व विज्ञान की वृद्धि करनी चाहिये। इसके अनुकूल अनेक नियम और भी हो सकते हैं जिनका पालन करने से मनुष्य को जीवन में लाभ होता है और इनका पालन करने से मनुष्य का परजन्म, जो मनुष्यों के इस जन्म के कर्मों पर मुख्यतः आधारित व आश्रित होते हैं, सुधरता व बनता है। मनुष्य का मन जो प्रायः लोभ व मोह से ग्रस्त होकर सत्य को छोड़कर असत्य में झुक जाता व अशुभ कर्म करता है वह अपने मन पर नियंत्रण न होने व असत्य का परिणाम विदित न होने के कारण भी करता है। अतः उसे वेदादि ग्रन्थों को पढ़कर सत्यासत्य का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और सत्य कर्म ही करने चाहियें। मन को सत्य कर्मों में प्रवृत्त करने के लिये सत्यासत्य का ज्ञान व सत्य कर्मों से वर्तमान व भविष्यों में होने वाले लाभों का ज्ञान भी होना चाहिये। इसके लिये मन को शास्त्रों में कहे गये साधनों व उपायों से अपने वश में करने सहित उसे विद्याध्ययन और सज्जन पुरुषों की संगति में लगाने की आवश्यकता है। इसके साथ मन को वश में करने के दो प्रमुख साधन हैं। वह हैं प्राणायाम और ईश्वर नाम ओ३म् व गायत्री मन्त्र का जप तथा वेदादि सत्य शास्त्रों का स्वाध्याय, प्रवचन व प्रचार तथा ज्ञानी व विद्वानों की संगति आदि।

मन के द्वारा आत्मा को जब यह ज्ञान हो जाता है कि उसके प्रत्येक कर्म का फल उसको भोगना होगा तब वह विवेक से असत्य कर्मों को न करने का विचार एवं संकल्प करता है। ऐसा करने पर भी वह लोभ व मोह से यदा-कदा ग्रस्त हो जाता है और अशुभ कर्म करके बन्धनों में फंस जाता है। बन्धन का परिणाम ही जन्म-मरण व सुख व दुःखादि होता है। अतः मनुष्य जीवन में मोह व लोभ सहित राग व द्वेष से ऊपर उठना अर्थात् मन में इनके भाव व विचारों को न आने देने का प्रयत्न करना है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को ईश्वर की उपासना, ध्यान, चिन्तन व ईश्वर गुण-कर्म-स्वभाव सहित ईश्वर के सत्य व ज्ञानस्वरूप का ध्यान कर उसके अनुरूप अपने गुण, कर्म व स्वभाव बनाने का प्रयत्न करना है। उसे विचार कर यह भी निश्चित करना है कि उसे यथासम्भव परोपकार, दान व सेवा आदि के कार्य भी करने चाहियें। परोपकार, दान व सेवा से मनुष्य द्वारा ईश्वर की आज्ञा का पालन होने से उसे ईश्वर की निकटता प्राप्त होती है। इससे उसे अपने मन को शुभ कार्यों में लगाने में सहायता मिलती है और इन शुभ कर्मों का परिणाम भी सदैव सुख ही होता है।

यदि मनुष्य को सद्ज्ञान नहीं है तो वह शुभ कर्म करने से वंचित होकर बन्धनों से ग्रस्त हो जाता है। समाज व देश में हम देखते हैं कि लोग मत-मजहब-सम्प्रदाय आदि को अपना मत व धर्म मानते हैं। इन सभी मतों की अनेक बातें वेद विरुद्ध, सत्य विरुद्ध, ज्ञान-विरुद्ध, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध व वेदानुकूल न होने से असत्य हैं अर्थात् सत्य नहीं हैं। वेद व ऋषियों के ग्रन्थ पढ़ने से हमें ज्ञात होता है कि हमारे निमित्त वा हमारे द्वारा जो वायु, जल, प्रकृति का प्रदुषण होता है उसका निवारण करना भी हमारा कर्तव्य व दायित्व है। यदि हम इन प्रदुषणों को दूर करने के लिये वायु व जल शुद्धि हेतु देवयज्ञ-अग्निहोत्र नहीं करते तो हम अपने श्वांस द्वारा कार्बन डाई आक्साइड छोड़ने, वस्त्र प्रक्षालन, स्नान तथा रसोई के धुएं आदि कार्यों से पाप को प्राप्त होते हैं जिसका परिणाम ईश्वर की व्यवस्था में हमें दुःख का प्राप्त होना होता है। यज्ञ करने वाला मनुष्य न केवल इन पापों से बचता है अपितु यज्ञ के व्यापक प्रभाव व अन्यों को श्वांस हेतु शुद्ध प्राण वायु मिलने से जो जो लाभ होते हैं उसका पुण्य भी यज्ञ करने वालों को मिलता है। अतः सद्ज्ञान की प्राप्ति के लिये मनुष्य को स्वाध्यायशील होकर विद्याध्ययन में प्रयत्नशील होना आवश्यक है तभी वह बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष मार्ग पर चल सकता है। इसके लिये मनुष्य अपने मन को जहां प्राणायाम आदि के द्वारा वश में करे वहीं संकल्पपूर्वक ईश्वर की उपासना व सन्ध्या सहित देवयज्ञ-अग्निहोत्र के द्वारा अपने नित्य कर्तव्यों का पालन कर अनजाने में होने वाले पापों से भी बचने का प्रयत्न करे। हम समझते हैं कि चलते फिरते बहुत से सूक्ष्म किटाणु व कीड़े, चींटियां व जन्तु आदि हमारे पैरों से कुचल कर मर जाते व पीड़ित होते हैं, इन पापों का निवारण भी देवयज्ञ व बलिवैश्वदेवयज्ञ से होता है।

मन का यह स्वभाव प्रतीत होता है कि यह अनुचित व पाप कर्मों के आकर्षण से अभिभूत होकर कुछ समय अज्ञान को प्राप्त होकर उनको कर लेता है और बाद में विचार करता है तो उसे अपने कर्मों पर पश्चाताप होता है। मांसाहारी, शराबी, घूम्रपान, आर्थिक अपराध करने वाले मनुष्यों पर विचार करें तो इन कर्मों को करने वाले सब लोग जानते हैं कि यह सब कर्म उनके स्वाध्याय, सुख व शान्ति के लिये हानिकारक हैं परन्तु वह अपने मन, आदत तथा स्वाद आदि के कारण उनका सेवन करने में एक प्रकार से विवश व परतन्त्र रहते हैं। यह वस्तुयें जब सामने आती हैं तो उनका मन उन पर झुक कर उन्हें करने के लिये प्रेरित करता है और अनेक ज्ञानी मनुष्य भी उन कर्मों को कर लेते हैं। अतः मनुष्य को अपने मन को अपने वश में करने के लिये शास्त्रों में बताये गये उपायों का अवलम्बन करना चाहिये। उसे शुद्ध व पवित्र शाकाहारी भोजन ही करना चाहिये। तला, अधिक नमक, मिर्च, तेल व घी तथा मसालों का सेवन भी न्यून से न्यून ही करना चाहिये। गोदुग्ध, फलों व मेवों के सेवन को अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार प्राथमिकता देनी चाहिये। मांसाहार, मदिरापान, घूम्रपान, चाय, काफी आदि का सेवन नहीं करना चाहिये। मन को सद्विचारों अर्थात् ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना आदि से युक्त रखना चाहिये। प्रातः व सायं सन्ध्या वा ईश्वरोपासना अधिक से अधिक समय तक करनी चाहिये। भविष्य में होने वाली अपनी मृत्यु पर भी विचार करना चाहिये और अपने सभी कार्य पूर्ण रखने का प्रयत्न करना चाहिये जिससे अन्तिम समय पर किसी को किसी प्रकार की कठिनाई न हो। प्राणायाम, शुद्धाहार तथा स्वाध्याय आदि से मन को पाप कर्मों से दूर रखकर हम मोक्ष मार्ग पर चल कर भविष्य व परजन्मों में इसे प्राप्त कर सकते हैं। यह सत्य है एवं अनुभवों से सिद्ध है कि मन का वश में होना विपत्तियों का मार्ग कारण होता है और मन का वश में होना सम्पत्तियों को प्राप्त करने के समान होता है। यह सुनिश्चित कर लेने के बाद श्रेय मार्ग का ही अवलम्बन सभी मनुष्यों को करना चाहिये।

उपर्युक्त कुछ विचार हमने थोड़े समय के चिन्तन कर लेखबद्ध किये हैं। पाठक अपने स्वाध्याय व अध्ययन से इसमें बहुत सी बातें और जोड़ सकते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक हमारे विचारों को विषय के अनुरूप व अनुकूल पायेंगे। इस विषयक पर विचार करने पाठकों को लाभ होगा, ऐसा हम अनुभव करते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य