राजनीति

आलेख– किस तरफ़ हम बढ़ रहें, जहां समाज का प्रहरी ही सुरक्षित नहीं

कहीं कुदाल से वार हो रहा, कहीं भीड़ टूट पड़ रहीं। यहीं नहीं कहीं लाठियां भी बरस रही। यह सब देश के चारों दिशाओं में हो रहा। अब आप सब भी सोच रहें होंगे। कैसे अराजक दृश्य की परिकल्पना हम कर रहें। तो मैं पहले यह स्पष्ट कर दूं। यह दृश्य किसी जंगली जीव के शिकार का नहीं, न ही किन्हीं दो पक्षों की रंजिश के कारण लड़ाई का मोहरा। इन सब घटनाओं का सामना कर रहें, देश और समाज को भयमुक्त परिवेश दिलाने वाले, समाज के संरक्षक पुलिस तंत्र के लोग। पुलिस का कार्य समाज को भयमुक्त वातावरण उपलब्ध कराना होता है। कानून-व्यवस्था को बनाएं रखना होता है, लेकिन वर्तमान दौर में वहीं पुलिस व्यवस्था ख़ुद भीड़ या लोगों के गुस्से का शिकार हो रही। फ़िर ऐसे में हम कैसे विचार-विमर्श करें, कि आने वाले वक्त में राम-राज्य की परिकल्पना सफ़ल सिद्ध होती प्रतीत हो सकती है। स्थितियां अब ऐसी निर्मित होती जा रही, कि रक्षक पर ही अवाम भक्षक बनकर टूट रही। फिर इसके पीछे का कारण कुछ भी हो। फ़िर भी संविधान का नीति-नियम, क़ायदे और सामाजिक कर्तव्यों की थू-थू इसे न समझें। तो इसे क्या कह दें। मानते हैं, पुलिस तंत्र के लोग कभी-कभार उग्र होते आएं हैं। जिस कारणवश मानवीय संवेदना और मानवाधिकार की धज्जियां भी उड़ी हैं, लेकिन पुलिस के लोगों पर कितना मानसिक, सामाजिक और अन्य स्तर का दवाब रहता है। इससे कोई अंजान नहीं। फ़िर अगर तत्कालीन दौर में पुलिस को अपने-आप को राष्ट्र की अवाम से बचाने की नौबत आन पड़ी, फिर देश की क़ानून-व्यवस्था किधर चली जाएगी। वह कोई कहने-सुनने का विषय नहीं रह जाता।

लोकतांत्रिक प्रशासन में विधि द्वारा स्थापित भारतीय संविधान को लागू करना व समाज में अपराध को रोकना एवं कानून-व्यवस्था बनाए रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी पुलिस व सुरक्षा बलों पर होती है, तो उसी लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा होने के नाते अवाम की भी यह जिम्मेदारी बनती है। पुलिस प्रशासन का सहयोग करें और उन्हें स्वतन्त्रता पूर्वक काम करने दें, लेकिन आज के दौर में स्थितियां कुछ अलग दिख रहीं। जो किसी भी पैमाने पर खरी नहीं मानी जा सकती।

आज के दौर में जब हम बात कर रहें, भीड़ और समाज की। जो क़ानून और संवैधानिक नैतिकी को तार-तार कर रही। उस दौर में पुलिस तंत्र अगर पहले से ही कई तरीक़े की खामियों से जूझ रहीं। फ़िर न्याय के बीच की कड़ी बनेगा कौन और बनी-बनाई सामाजिक संरचना बेहतरी से चलेगी कैसे। कुछ यूं चंद सवाल फन फैलाकर हमारे और हमारी व्यवस्था के सामने प्रकट होते हैं। जिनका उत्तर जल्द से जल्द ढूढ़ना होगा, नहीं स्थितियां काबू के बाहर हो जाएंगी। बात हम यहां देश के पुलिस व्यवस्था की करें। तो उसकी संरचना काफ़ी पुरानी है। जिसमें फ़ेरबदल के लिए बहस पिछले सौ वर्षों के अधिक समय से चली आ रही, लेकिन बदलाव की बयार आज़तक न परवान चढ़ सकी और तो और अब शायद पुलिस की ख़ाकी वर्दी का भय भी अवाम के मन-मस्तिष्क से छू-मंतर हो रहा। तभी तो अब हमले पुलिस के लोगों पर भी होने लगें हैं। डरावनी स्थिति तो तब हो जाती है। जब पता चलता है, कि अराजक होती अवाम अब पुलिस चौकी में घुसकर भी समाज के रक्षक के लिए ही भक्षक बन रहीं।

ऐसे में समझ यहीं आता है, कि क़ानून को तोड़ने का जिम्मा शायद सफेदपोश और अराजक अवाम की मिलीभगत का नमूना है, या इसके पीछे कोई ओर मनोवैज्ञानिक कारण । लोकतंत्र की सबसे बड़ी विसंगति यह है, जिन पर समाज की रक्षा का जिम्मा है। उन्हीं को लेकर बेहतरी का कोई इंतजाम सुप्रीम कोर्ट के बार-बार निर्देशों के बावजूद अब तक नहीं हुआ है। यहां गौरतलब यह हो, कि सोली सोराब समिति ने वर्ष 2006 में पुलिस अधिनियम का एक प्रारूप तैयार किया था, लेकिन आज तक उनकी यह रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में ही पड़ी है। आज के दौर में पुलिस नामक बला का भय अवाम को डरा ही नहीं पा रही, बल्कि उसकी शक्तियां जैसे क्षीण हो गई हैं। तभी तो कोई भी, कभी भी और कहीं भी पुलिस के लोगों पर वार कर रहा है। यहां एक बात यह भी है, पुलिस प्रशासन के चंद लोगों ने जहां अपनी गलत हरकतों की वज़ह से पुलिस व्यवस्था का नाम बदनाम किया, तो उसकी सज़ा पूरी ख़ाकी वर्दी को तो दी नहीं जा सकती। आज हमारे समाज में अपराध का ताना-बाना बड़े पैमाने पर बुना जा रहा। तो इसके पीछे अनेकोनेक कारण हैं, लेकिन कहीं न कहीं एक कारण पुलिस तंत्र में व्याप्त कमियां भी है। संयुक्त राष्ट्र की सिफारिशों के मुताबिक, हर साढ़े चार सौ लोगों पर एक पुलिसवाला होना चाहिए, लेकिन भारत में स्थिति एकदम इसके उलट है। यहां राष्ट्रीय औसत 729 लोगों का है। तो वहीं कई राज्यों में यह आंकड़ा 11 सौ तक का है। जिस तरफ़ रहनुमाई तंत्र के नुमाइंदे झांकना नहीं चाहते, जो चिंताजनक और भयावह स्थिति निर्मित करने वाला है। ऐसे में इस आलेख का केंद्रबिंदु तो अराजक अवाम और भीड़ का शिकार होते पुलिस के लोग तो रहेंगे ही, साथ में देश में रामराज्य की परिकल्पना को साकार करने के लिए पुलिस व्यवस्था में सुधार की तरफ़ भी सियासतदानों का ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया जाएगा।

1. धूमिल होती समाज के रखवालों की छवि:-

आज के वर्तमान परिदृश्य में अवाम का विश्वास ख़ाकी वर्दी से कम होता जा रहा। तो इसके लिए जिम्मेदार ख़ाकी वर्दी के वे लोग भी हैं। जिन्होंने भारतीय हिंदी फ़िल्मों में दिखाएं गए दृश्य के अनुरुप अपने ईमान और ज़मीर से सौदा किया। आज़ादी से अब तक ऐसे अनगिनत वाक़ये देखने को मिल जाएंगे, जिन घटनाओं ने ख़ाकी को तो दागदार किया ही साथ में पूरे देश की पुलिस व्यवस्था की कार्यशैली पर आक्षेप किया है। इस कड़ी में फ़र्जी एनकाउंटर से लेकर रिश्वत के साथ पुलिस प्रशासन में भ्रष्टाचार की जड़ें भी बहुत गहरी हो चुकी हैं। ऐसे में यूँ कह दें, पूरा पुलिस तंत्र भ्रष्टाचार से बुरी तरह आच्छादित है। तो ग़लत नहीं होगा। जिसने समाज और अवाम के बीच पुलिस की छवि में बट्टा लगाने का कार्य किया है। फर्जी एनकाउंटर को भी प्रमोशन का सलीका बनाया जाना पुलिस का खेल बनता जा रहा है। जो पुलिस तन्त्र की नकारात्मक छवि को प्रदर्शित करने वाला ही है। पुलिस भी क़ानून और संविधान से ऊपर अपने-आप को समझने लगी है। एक उदाहरण से इस बात को देखते हैं।

घटना उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में सिधौली कोतवाली अन्तर्गत ग्राम बिशुनदासपुर की है। जहां पर 30 दिसम्बर, 2017 की रात में एक प्रशिक्षु उपनिरीक्षक सहित अन्य पुलिस कर्मियों ने एक दलित व्यक्ति को पहरा न लगाने पर बेहरमी के साथ पीटा, तदुपरांत उसे पूरे गांव में घुमाया, इसके अलावा मुर्गा बनवाया और पांच सौ दंड-बैठक लगवाई सो अलग। अगर जिस ख़ाकी को सामाजिक सुरक्षा का दायित्व मिला है, वह अपने वर्दी के दम-खम पर समाज के लोगों को डराने-धमकाने पर उतारू हो जाएगी। तो सामाजिक व्यवस्था तो दूषित होगी ही, साथ में उसका प्रतिफ़ल भी दृष्टिगत होगा। आज समूचे पुलिस तंत्र को शर्मसार करने वाली घटनाएं देशव्यापी समस्या का रूप ले चुकी है। तो स्थिति यहीं कह रहीं बदलाव की दरकार कई स्तरों पर है, लेकिन शायद इसके लिए तैयार न समाज है, न सियासी नुमाइंदे और न ही पुलिस प्रशासन। ऐसे में स्थिति बिगड़ने के बजाय सुधरने वाली तो कहीं से कहीं तक नहीं दिख रही।

2) पुलिस पर अवाम का विश्वास कम क्यों हो रहा:-

आम व्यक्ति पुलिस व्यवस्था से उम्मीदें क्या-क्या करता है। या यूं कहें पुलिस व्यवस्था का कर्तव्य समाज के प्रति क्या होता है। तो व्यक्ति यहीं चाहता है, उसे सामाजिक सुरक्षा मिलें, उसकी शिकायत आदि की सुनवाई आसानी से पुलिस थानों में हो। पुलिस व्यवस्था किसी की जी-हजूरी न करें, लेकिन आज के दौर में राजनीतिक रुतबे और रिश्वतख़ोरी ने जो पुलिस समाज की रक्षक होती है। उसके कर्तव्यों को बदल कर रख दिया है। पुलिस तंत्र भी राजनीतिकरण का शिकार हो चला है। जो न सभ्य समाज के लिए उचित है, न एक लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए। जहां के संविधान में बात समानता और समान अधिकार की होती हो। आज के दौर में पुलिस की ख़ाकी वर्दी के लोग जिस हिसाब से पद-प्रतिष्ठा के आगे घुटने टेकने को मजबूर दिखते हैं।

वह उसकी छवि को धूमिल तो करता है ही, साथ में यह संवैधानिक प्रजातंत्र में दी जाने वाली समानता के अधिकार को अंगूठा दिखाने का काम करती है। वर्तमान दौर में अगर देश में 10,000 से भी अधिक पुलिस थाने होने के बावजूद भी लोग निजी सुरक्षा बंदोबस्त में विश्वास रखने लगें हैं। तो स्थिति पानी की तरह साफ़ है, कि पुलिस की छवि और विश्वसनीयता कटघरे में खड़ी हुई दीप्तमान हो रही। भले ही इसके पीछे का कारण पुलिस के लोगों का गिरता नैतिक और सामाजिक स्तर हो, या राजनीति का पुलिस पर बढ़ता दबाव हो, या फ़िर वर्दी का रौब दिखाने की कुछ पुलिस के कर्मचारियों की फ़ितरत। इन सबसे भारतीय पुलिस तंत्र को अपना दामन बचाना होगा, नहीं पुलिस व्यवस्था की विश्वसनीयता तो मिट्टी में मिलती दिखेंगी ही साथ में यह देश के लिए बड़ी शर्मिंदगी का विषय होगा।

3) क़ानून व्यवस्था को आड़े हाथ ले रही तथाकथित अवाम:-

जब तक पुलिस तंत्र के लोग यानी वर्दीधारी लाठी, डंडा और अन्य हथकंडे अपना रहें थे। वह वाज़िब और कहीं न कहीं न्यायसंगत था। जब तक वह संवैधानिक दायरे और मानवाधिकार को आड़े हाथ नहीं ले रहा था, लेकिन अब तो स्थितियां अज़ीब ही निर्मित होती जा रही। क़ानून के रखवालों को ही आड़े हाथों भीड़ और देश की तथाकथित अवाम ले रहीं। ऐसे में सवाल तो बहुतेरे पैदा हो रहें। जिसके उत्तर अभी तक अनुत्तरित हैं, लेकिन ढूढ़ना पड़ेगा हाल-फ़िलहाल में वरना, का बरसे जब कृषि सुखाने वाली स्थितियां निर्मित हो जाएंगी। आज हमारे लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबना यह हो चली है, सब फ़ैसला कर रहें, ख़ुद वकील, जज और क़ानून के रखवाले बन कर। जो काफ़ी ग़लत अवधारणा पनपती जा रहीं। अगर अवाम किसी भी विषय पर सही-ग़लत का फ़ैसला ख़ुद करने लगेंगी, तो संवैधानिक ढाँचे आदि का क्या निहितार्थ बचेगा। मानते हैं, पुलिस तंत्र को जो अधिकार और दायित्व मिला है, कभी-कभार किसी के दबाव या फ़िर अपनी वर्दी के रौब में जिम्मेदरियों से काफ़ी आगे बढ़ जाती है। तो इसका तो कतई मतलब नहीं, हम लोकतंत्र और संवैधानिक ढांचे को ही चुनौती देने पर उतारू हो जाएं।

हर कार्य को करने का एक सिस्टम और प्रक्रिया होती है। उसे तोड़कर हम बेहतरी की अगर उम्मीद लगाएंगे। तो बेहतर तो होगा नहीं, बल्कि स्थितियां ओर नाज़ुक होगी। जो आगे चलकर नासूर बन जाएंगी। इसलिए एक संवैधानिक ढांचे और लोकतांत्रिक देश का हिस्सेदार होने की वज़ह से हमें अपने जिम्मेदरियों और कर्तव्यों का उचित भान और अंतर पता होना चाहिए। यहां पर हम कुछ घटनाओं का ज़िक्र करेंगे। जो इस बात को स्पष्ट करेंगी, कि जो समाज का रक्षक है। जिसे समाज सुधार का उत्तरदायित्व मिला है, अगर वह ही आज के दौर में अपनी जान बचाने के लिए जदोजहद कर रहा। फ़िर कैसे मान लें। हम एक बेहतर राष्ट्र की तरफ़ प्रशस्त हो रहें। जिसे रामराज्य या फिर विश्वगुरु नामक राष्ट्र की संज्ञा दी जाने की आबोहवा बनाई जा रही।

चांदहट थाने पर हमला, पुलिस की गाड़ी तोड़ी:-

घटना पलवल के गांव रसूलपुर की है। जो इसी सितंबर माह की ही है। जहां पर बीते दिनों शराब ठेके पर पुलिस कर्मचारियों को हमलावरों ने पीटा। पुलिस को पीटा, जी हां आपने सही सुना। वहीं पुलिस जिसे समाज को भयमुक्त करने की जिम्मेदारी मिली है। वह अब ख़ुद अराजक तत्वों के हाथों का शिकार हो रही। पहले आपने सुना होगा। हमारी स्थानीय स्तर की सुरक्षा प्रहरी पुलिस नक्सलियों और आतंकवादियों का शिकार होती रही होगी, लेकिन अब वह अपने समाज के बीच के लोगों का शिकार भी बन रही। जो बेहद चिन्तनीय और सोचनीय विषय बन जाता है। हम बात पलवल के रसूलपुर में पुलिस के साथ हुई घटना का कर रहें। तो गौरतलब हो, कि जब ठेके के सेल्समैन के साथ मारपीट कर शराब लूट ली गई। वहां काम करने वालों ने झगड़े की सूचना चांदहट थाने को दी। सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची तो बदमाशों ने पुलिस पर भी हमला कर दिया। पुलिस ने अपने बचाव में लाठी चलाई, तो तथाकथित अराजक तत्वों ने दूसरी तरफ से पुलिस पर लाठियां भांज दी। इस घटना में कई हमारी सुरक्षा करने वाले पुलिस कर्मियों को चोटें आई, तो वहीं पुलिस की गाड़ियां भी तोड़ दी गई।

हमारी सुरक्षा और समाज को भयरहित माहौल देने वाली व्यवस्था को निशाना बनाने की यह एक हालिया बानगी भर है। जो हाल-फिलहाल में घटित हुई है। इस तरीक़े की घटनाएं अब देश के सभी हिस्सों से दबे स्वर में देखने-सुनने को मिल रहीं। जो आने वाले समय में काफ़ी विकट स्थिति सामाजिक परिवेश में पैदा कर देगी। जब हर व्यक्ति ही सही-ग़लत का निर्णय करने की स्थिति में होगा, तो न राष्ट्र बचेगा और न राष्ट्रवाद और न ही जाति और राजनीति। इसलिए समाज और लोकशाही व्यवस्था को आगे आकर ऐसी समस्याओं के स्थाई समाधान ढूढ़ना होगा। सामाजिक सुरक्षा का जिम्मा जिनके कंधों पर है, आज वे अगर भीड़ या यूं कहें तथाकथित अराजक लोगों का शिकार होने लगें हैं, तो वह दिन दूर नही। जब सत्ता और सत्ताधीश बनें, लोगों को निशाना बनाया जाने लगें। ऐसे में समय रहते इन समस्याओं का विषपान किसी न किसी को करने के लिए क़दम बढ़ाना होगा, वरना वर्षों की चली आ रही सामाजिक व्यवस्था विखंडन के मुहाने पर खड़ी प्रतीत होगी। समाज को बेहतर वातावरण दिलाने वाले पुलिस तंत्र के लोगों पर हमले की एक घटना का ज़िक्र ऊपर किया। ऐसी अनगिनत घटनाएं आज हमारे परिवेश में घटित हो रहीं। जिन सब का सटीक आंकड़ा तो पेश नहीं किया जा सकता। फ़िर भी कोशिश है, कुछ उदाहरण जरूर आगे की पंक्तियों में पेश किया जाएं। जिससे पता चले हमारा देश और समाज किस पेशोपेश में आगे बढ़ता जा रहा है।

मेरठ में शराब माफिया और उनके गुर्गों द्वारा समाज के रखवालों की पिटाई:-

शहर उत्तर प्रदेश का मेरठ । घटना इसी वर्ष के मई महीनें की। शराब माफिया और उसके गुर्गों ने पुलिस को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा, जिसमें कई पुलिसकर्मी चोटिल हो गए और एक सिपाही गंभीर रूप से घायल हो गया। गौरतलब हो, टीपीनगर थाना पुलिस नवीन मंडी के गेट पर चेकिंग कर रही थी। उसी दरमियाँ पुलिस को सूचना मिलती है, कि कार में तस्करी की शराब लाई जा रही है। घेराबंदी करते हुए पुलिस ने कार रुकवाने की कोशिश की तो ड्राइवर ने कार दौड़ा दी। पुलिस के पीछा करने पर कार सवार चार तस्कर कार छोड़कर भाग निकले और वहीं नजदीक ही कूड़े वाली बस्ती में जा घुसे। ऐसे में जब तस्करों का पीछा कर रहें टीपी नगर थाने के सिपाही ललित एक युवक की बाइक पर लिफ्ट लेकर बस्ती में घुस गया। वहां पर समाज के रक्षक की जमकर पिटाई शराब माफियां और उनके गुर्गों ने की।

कानपुर का मामला:-

पहले ही ज़िक्र कर दिया। संवैधानिक व्यवस्था में काम करने का एक सलीका होता है, लेकिन इस सलीक़े के आगे जब जनभावना आड़े आ जाएं तो ऐसी ही घटनाएं समाज में घटित होती हैं। घटना कानपुर की है, जून 2017 की। यहां के न्यू जागृति अस्पताल में 16 जून की रात एक नाबालिग लड़की सीढ़ियों से गिरने के चलते भर्ती कराई गई। उसे आईसीयू में भर्ती किया गया। 17 जून की सुबह लड़की के घर वालों ने आरोप लगाया कि एक वॉर्ड बॉय ने नशीली दवा वाला इंजेक्शन लगाकर उक्त लड़की के साथ दुष्कर्म किया। ऐसे में मामला पुलिस तक पहुँच गया, और दर्ज भी हुआ। साथ में वार्ड बॉय गिरफ्तार भी हुआ। मामला यहाँ आकर अड़ गया, कि अस्पताल सील किया जाए। जिसके लिए भीड़ ने उत्पात मचाना शुरू किया। तो पुलिस वालों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए आगे आना पड़ा। ऐसे में भीड़ ओर उग्र हो गई और उसने कुछ पुलिस कर्मियों पर हमला कर दिया। जिसमें फज़लगंज थाने में तैनात पुलिस इंस्पेक्टर और दो कॉन्स्टेबल ज़ख्मी हो गए। मतलब अपनी बात को मनवाने के लिए भीड़ क़ानून को ठेंगा दिखाने में पीछे नहीं नज़र आ रही। जो एक सभ्य और संवैधानिक राष्ट्र के लिए कतई सही करार नहीं दिया जा सकता।

रसूख वालों ने की समाज के रखवालों की पिटाई:-

घटना छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के तखतपुर की है। जिसका आधार मीडिया रिपोर्ट्स है। घटना इसी वर्ष के जुलाई की है। पुलिस पेट्रोलिंग के लिए निकलती है। इसी दौरान पूर्व जनपद उपाध्यक्ष तरुण खांडेकर व उसका छोटा भाई निक्की खांडेकर अपने घर से कुछ दूर चौक पर अपने 10-12 दोस्तों के साथ खड़े थे। पेट्रोलिंग टीम की गाड़ी से उतर कर एक आरक्षक ने लड़कों से पूछ-ताछ कि देर रात चौक में किस लिए इकट्ठा हैं। ये बातें उक्त लोगों को पसन्द नहीं आती। इकट्ठा लोग भड़क जाते हैं, और आरक्षक के गुप्तांग में लात मार देते हैं। बचाव में आने वाले अन्य जवानों की भी पिटाई करते हैं। अब अगर यह घटना राजनीति के हैसियतदार से मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक जुड़ती है। ऐसे में जब नीति-नियंता के लोग ही ऐसी अमानवीय और असामाजिक कृत्यों के सहभागी होंगे। फिर आमजन और समाज के अन्य लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। इसका सहज आंकलन किया जा सकता है।

न्याय तंत्र और पुलिस सिस्टम पर आक्षेप:-

पिछले दिनों आगरा में एक ही दिन में ताबड़तोड़ दो गंभीर घटनाएं कानून के अलमबरदारों की नाक के नीचे हुईं , जिन्होंने पूरे शहर के दिलो दिमाग को झकझोरा ही। समाज और व्यवस्था को स्तब्ध करने का काम भी किया। पहली घटना हुई दीवानी अदालत के बाहर, जिसमें वक़ीलों के समूह ने आइआइएमटी मेडिकल इंस्टीट्यूट के संचालक एच एस बैरागी को घेरकर पुलिस के सामने ही बेरहमी से पीट डाला। जहां पर वक़ीलों के गढ़ दीवानी में पुलिस की हिम्मत नहीं हुई कि वह हमलावर वक़ीलों को रोकती या गिरफ्तार करती। वहां पर अगर कानून के ठेकेदार भीगी बिल्ली बने हमलाबर वक़ीलों की मर्दानगी देखते रहे। तो उसके पीछे का मनोवैज्ञानिक कारण भी समझना होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुरक्षा का जिम्मा जिस पुलिस बल को मिला है। वह भीड़ और तथाकथित अराजक तत्वों का लगातार शिकार होती आ रही। शायद यहीं एक कारण रहा होगा, जिससे दीवानी के सामने क़ानून के ठेकेदारों को शांत रहना पड़ा।
इस दुस्साहसिक घटना की प्रतिक्रिया भी हुई। उसी दिन थोड़ी देर बाद ही थाना न्यू आगरा के गेट पर पुलिस की नाक के नीचे। जब एच एस बैरागी के बेटों ने अपने पिता को पीटने वाले वकील श्रोत्रिय को पिस्टल से गोली मारकर घायल कर दिया । इस घटना का तमाशबीन ही क़ानून के रखवाले बने रहें। कुछ समय बाद जब बैरागी के बेटों को पुलिस गिरफ्तार कर लेती है। उस वक्त नए तरीक़े की कशमकश और हालत दिखते हैं। जिससे निपटने के लिए पुलिस तंत्र और रहनुमाई व्यवस्था को आगे आना होगा। बैरागी के गिरफ्तार बेटों ने एसएसपी से जो सवाल किया। वह वाज़िब भी था, लेकिन संवैधानिक देश में क्रिया की प्रतिक्रिया में विश्वास किसी हद तक सही नहीं ठहराया जा सकता। बैरागी के बेटों का प्रश्न था, जब उनके बुजुर्ग पिता को दीवानी में पीटा गया तो पुलिस तमाशाई क्यों बनी रही !

आगरा में हुए इस पूरे प्रकरण के बाद लोगों के दिमाग में अनेक गंभीर प्रश्न उठ रहें हैं। जिनसे छुटकारा कैसे पाया जाएं। इस बारें में नीति-नियंता के साथ समाज के पद-प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भी सोचना चाहिए। हम मानते हैं, अगर किसी व्यक्ति का किसी वकील से पंगा हो तो मुकदमे की पैरवी या जमानत के लिए जाएगा तो वह दीवानी में ही । वहां उस पर वक़ीलों का समूह अगर टूट पड़े तो जान बचाने के लिए वह कहां जाएगा । पुलिस उसे बचाएगी नहीं और हमलाबरों को पकड़ेगी नहीं ! इसके अलावा चूंकि कानून की आंखों पर पट्टी है , इसलिए जज साहिबान सब कुछ देखकर भी सच्चाई को नजरंदाज करेंगे । फिर आखिर में सबसे बड़ा सवाल यहीं पीड़ित कानूनी मदद पाने कहां जाएगा। ऐसे में ऐसी घटनाएं शांतिप्रिय वरिष्ठ वक़ीलों के सामाजिक कद और उनकी प्रतिष्ठा को झकझोरने वाली तो है ही। दीवानी परिसर में इस तरह की घटनाएं पुलिस और न्यायतंत्र से जुड़े पूरे सिस्टम पर सवालिया निशान खड़े करती है।

तो किन-किन प्रदेशों के शहरों की घटनाओं का ज़िक्र करें। जहां पर समाज को सुरक्षित रखने का जिम्मा सँभालने वाले सिपाही को ही तथाकथित भीड़ या फिर अराजक तत्वों का सामना करना पड़ा। हम बिहार, केरल, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर कहाँ-कहाँ की घटनाओं का ज़िक्र करे। ऐसे में कहना इतना ही सहज लगता है, सबको संवैधानिक दहलीज़ में अपनी जिम्मेदरियों और कर्तव्यों का उचित भान होना और उस पर अमल करना आवश्यक है। वरना समाज के रक्षक पर लाठी-डंडे बरसाने वालों की फ़ौज बढ़ती जाएंगी। तो अराजकता का माहौल ही बढ़ेगा। ऐसे में न देश तरक़्क़ी करेगा और न ही समाज।

4) देश की पुलिस व्यवस्था में सुधार की ज़रूरत:-

ऐसे में कहीं न कहीं पुलिस को भी अपनी छवि में परिवर्तन लाना होगा। वह समाज की सेवा के लिए है, इस छवि को पुनर्जीवित करना होगा। रिश्वतख़ोरी से बाहर आना होगा। जी-हजूरी और काम से कन्नी काटने से बचना होगा। इसके लिए पुलिस सुधार की भी आवश्यकता है, जो लंबे समय से अधर में झूल रहा। पुलिस बल में बढ़ोतरी करनी होगी। पुलिस तंत्र के बारे में समाज के लोग का क्या दृष्टिकोण हैं। उसके लिए सर्वे करवाया जा सकता है। जिसके आधार पर पुलिस तंत्र के लोग अपने व्यवहार में बदलाव कर सके। समाज के लोग और पुलिस के बीच मित्रवत व्यवहार होना चाहिए। इसके लिए हम न्यूयार्क पुलिस विभाग के कंप्यूटर स्टेटिस्टिक प्रोग्राम जैसे किसी प्रोग्राम का सहारा ले सकते हैं। जिसके माध्यम से अपराध-प्रधान क्षेत्रों की पहचान की जा सकती है। न्यूयार्क के पुलिस कमांडर को हर हफ्ते अपने उपायुक्त को इस बात की जानकारी देनी होती है कि वह अपने क्षेत्र के अपराधों से कैसे निपट रहा है। तो ऐसी ही कुछ प्रक्रियाएं हमारे देश की व्यवस्था को भी अपनानी होगी। जिससे अवाम में पुलिस के प्रति राय बदल सके। इसके अलावा तकनीक को बढ़ावा दिया जाएं। जिससे आनाकानी वाली समस्या से लोग निजात पा लेंगे। तो वे ख़ुद-ब ख़ुद एक निश्चित स्तर तक पुलिस व्यवस्था से ख़ुश रहने लगेंगे।

5) पुनश्च:-

पुलिस हमारी रक्षा के लिए है, तो वह अपनी जिम्मेदरियों को समझें। सियासत के नुमाइंदे अपनी जिम्मेदरियों को समझें, और समाज अपने फ़र्ज़ को। पुलिस को आधुनिक तकनीक से लैस किया जाएं। पुलिस बल में कमी दूर हो। साथ में फ़िर पुलिस भी अपने बने-बनाएं ढ़र्रे पर चलना बंद करें। उसे वर्दी समाज की रक्षा मात्र के लिए मिली है, उसे यह भान होना चाहिए। वे समाज हितैषी बनकर सामने आए। राजनीतिक हस्तपेक्ष से पुलिस कार्यवाही को मुक्त रखा जाएं। इसके अलावा पुलिस पर बेवज़ह हाथ उठाने वालों को कड़ी कार्रवाई दी जाएं। इसके अलावा भीड़ को यह भी समझना चाहिए, क़ानून को हाथ में लेकर कुछ भी संभव नहीं। जब देश संवैधानिक तरीक़े से चल रहा, तो उसकी नीतियों का पालन सभी का धर्म। तभी राष्ट्र मजबूत होगा, समाज भयमुक्त होगा और पुलिस और जनता के बीच आपसी सम्बंध प्रगाढ़।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896