धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेदमार्ग ही मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का ज्ञान कराकर मोक्ष में प्रवृत्त कराता है

ओ३म्

संसार में मुख्यतः दो प्रकार की जीवन शैली एवं संस्कृतियां हैं। एक त्याग की ओर प्रवृत्त करती हैं तो दूसरी भोग की ओर। वैदिक धर्म व संस्कृति मनुष्य को त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत करने का सन्देश देती है। पाश्चात्य एवं अन्य विदेशी संस्कृतियां प्रायः अपने अनुयायियों को भोग करने का संकेत देती हैं। त्याग का परिणाम सुख होता है जबकि भोग का परिणाम रोग दुःख होता है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य का कल्याण वैदिक धर्म व संस्कृति को अपनाकर होता है। वेद संसार के सर्वोत्तम ग्रन्थ हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। यह ज्ञान सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के बनने के बाद उत्पन्न अमैथुनी सृष्टि के चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। संसार में जितने भी ग्रन्थ हैं वह सब वेद के बाद रचे गये हैं। वेद और अन्य मत-पन्थ-सम्प्रदाय आदि के ग्रन्थों में मौलिक अन्तर यह है कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जबकि अन्य ग्रन्थ अल्पज्ञ मनुष्यों द्वारा ईश्वर व आत्मा आदि के यथार्थ ज्ञान से रहित विवेकरहित बुद्धि से रचे गये हैं। वेदेतर किसी भी मत व पन्थ के ग्रन्थ का अध्ययन करें तो उसमें ज्ञान व विज्ञान के विरुद्ध अनेक मान्यतायें विदित होती हैं। ज्ञान की अनेक अपूर्णतायें भी सभी मत-पन्थ के ग्रन्थों में हैं। वेद का ज्ञान निर्भ्रान्त ज्ञान है। इसे पढ़कर मनुष्य की आत्मा सत्य ज्ञान से संयुक्त होकर ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि के सत्य स्वरूप को जानने में समर्थ होती है। इसका यदि प्रत्यक्ष करना हो तो वेदाध्ययन सहित दर्शन, उपनिषद, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। यही कारण है कि यह सभी ग्रन्थ विश्व के बुद्धिजीवियों को विगत 140 वर्षों से अधिक समय से लोगों को प्रभावित कर रहे हैं। इन ग्रन्थों में निहित ज्ञान का ही प्रभाव है कि सभी मतों के विद्वानों ने पक्षपात रहित होकर वेद मत की प्रशंसा की है व अनेकों ने उसे स्वीकार भी किया है।

वेद मार्ग पर चलने के लिये मनुष्य को वेदों का अध्ययन कर उसकी शिक्षाओं को जानना होता है। ऐसा करके मनुष्य को अपने कर्तव्य का ज्ञान हो जाता है। वेदों में ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित आत्मा व सृष्टि का भी वर्णन हुआ है। वेदाध्ययन से मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति को यथार्थ रूप में जान लेता है। मनुष्य अर्थात् हम जीवात्मा हैं। जीवात्मा ज्ञान कर्म करने वाली सत्ता का नाम है जो अल्पज्ञ एकदेशी है। यह अनादि, सनातन, शाश्वत्, नित्य, अविनाशी, अजर, अमर, ससीम, जन्म-मरण धर्मा, पाप-पुण्य कर्मों को करने वाली तथा ईश्वर की भक्ति, ध्यान, समाधि आदि के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर दुःख शरीर से छूट कर मोक्ष को प्राप्त होने वाली है। हमारे सभी ऋषि, मुनि, योगी, महात्मा, वानप्रस्थी व संन्यासी आदि ईश्वर भक्ति, अग्निहोत्र-यज्ञ व परोपकार आदि कर्मों को करके ईश्वर प्राप्ति व मोक्ष मार्ग पर ही चलते थे। आज भी देश विदेश में वेदानुयायी व आर्यसमाज के अनुमागी लोग ईश्वर भक्ति रूपी सन्ध्या, अग्निहोत्र-यज्ञ, देश व समाज हित के कार्य, परोपकार व दान आदि सहित वेद आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय कर मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हैं। मोक्ष का अर्थ दुःखों की सर्वथा निवृत्ति होना है। दुःखों की निवृत्ति के लिये मनुष्य को पाप का पूर्णरुपेण त्याग करना होता है। पापों का त्याग कर और पूर्व किये पापों का फल भोग कर मनुष्य दुःखों से मुक्त हो जाता है। इसके साथ ही वह ईश्वर भक्ति, सन्ध्या तथा अग्निहोत्र आदि कर्मों को करके तथा इससे वायु, जल, अन्न, ओषधि व सृष्टि के अन्य पदार्थों का पोषण करके ईश्वर की निकटता को प्राप्त हो जाता है। जो लोग ईश्वर भक्ति की साधनायोगदर्शन की विधि से करते हैं, उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इसके लिये परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म् व गायत्री मन्त्र आदि के जप से अपने मन व आत्मा को भी शुद्ध व पवित्र किया जाता है। यदि मनुष्य का मन व आत्मा पवित्र न हां तो वह पुण्य व श्रेष्ठ कार्यों को करने में प्रयत्नशील नहीं होता। वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय मनुष्य के मन को प्रभावित कर उसे शुद्ध व पवित्र बनाने का एक सक्षम साधन है। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले मनुष्यों को स्वाध्याय में रूचि लेनी चाहिये। स्वाध्याय करने से मन और आत्मा अध्ययन किये जाने वाले विषय से एकाकार हो जाते हैं और इससे मनुष्य को उस विषय का ज्ञान, दर्शन व साक्षात्कार होता है। हम ऋषि दयानन्द के जीवन पर दृष्टिपात कर पाते हैं उनके जीवन की सभी उपलब्धियां उनके ज्ञानियों के सत्संग, उनसे प्राप्त विद्याओं का चिन्तन-मनन-स्मरण, उनके सत्यासत्य पक्षों पर विचार, उनकी परीक्षा, योगदर्शन के अनुसार साधना व अभ्यास, गुरुओं से विद्या ग्रहण व उनका अभ्यास का परिणाम थी। हम सभी को उनके जीवन का अध्ययन कर उनका अनुकरण करना चाहिये।

वेद मत संसार के आरम्भ काल से प्रचलित है। महाभारतकाल तक यही मत व धर्म समस्त संसार में प्रचलित था। महाभारत का काल लगभग 5,200 वर्ष पूर्व है। महाभारत काल तक संसार में वेद मत के अतिरिक्त अन्य कोई मत नहीं था। इसका कारण यह था कि वेद मत सत्य मत था और इसके विद्वान बड़ी संख्या में देश देशान्तर में विद्यमान थे। किसी अल्पज्ञानी व अज्ञानी को यह साहस नहीं होता था कि वह नया मत-मतान्तर चला सके अथवा आजकल की तरह गुरुडम को बढ़ावा दे सके। महाभारत के महायुद्ध के बाद देश देशान्तर में अविद्या का अन्धकार छा गया। शिक्षा आदि का महाभारतकाल से पूर्व जैसा व्यवहार प्रचलित नहीं रह सका। ऐसे अन्धकार के समय में ही देश देशान्तर में सभी मत-मतान्तरों व गुरुडमों को आश्रय मिला। इन मतों के अनुयायियों ने येन केन प्रकारेण अपनी संख्या बढ़ाने के लिये उचित व अनुचित साधनों का भी प्रयोग किया। इस कारण उनकी संख्या बढ़ती गई। वैदिक धर्म में मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, अवतारवाद, सामाजिक असमानता, नदियों में स्नान व हरिद्वार व काशी को तीर्थ मानने जैसी अवैदिक परम्परायें चलीं जिससे आर्य जाति का संगठन कमजोर होता गया और अब भी स्थिति ऐसी ही है। सामान्यजन ईश्वर व आत्मा को जानने तथा पूजा पद्धतियों की सत्यता की परीक्षा करने में जिस ज्ञान व बुद्धि की आवश्यकता होती है, वह उनके पास न होने से वह अपने स्वार्थी गुरुओं का अन्धानुकरण करते हैं जिससे सत्य ज्ञान से युक्त वैदिक मत सीमित ज्ञानी लोगों तक ही प्रचलित व प्रसारित है। वैदिक मत के लोगों को भी ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी तथा महात्मा हंसराज जी से प्रेरणा लेकर वैदिक धर्म का प्रचार करना होगा। इन महापुरुषों की तरह धर्म पर मर मिटना उन्हें सीखना होगा तभी वैदिक धर्म का प्रसार होगा तथा आर्य धर्म व संस्कृति की रक्षा हो सकेगी।

मनुष्य के जीवन का उद्देश्य दुःखों की सर्वथा निवृत्ति अर्थात् जन्म-मरण से दीर्घकाल तक छूट है। इसके लिये आत्मा को अपने पूर्व सभी पाप कर्मों का भोग करना है। पाप कर्मों के भोग का तात्पर्य है कि उसने वर्तमान जन्म सहित पूर्वजन्मों में जिन मनुष्यों व अन्य प्राणियों के प्रति अपराध किये हैं उनकी सजा पाकर उनसे मुक्त होना है। इसके साथ जीवात्मा को इस सृष्टि के कर्ता-पालन-संहारक का पूर्ण ज्ञान भी होना चाहिये। ईश्वर, जीवात्मा व कारण व कार्य प्रकृति का ज्ञान वेद एवं वैदिक साहित्य में सुलभ है। अतः जन्म-मरण से अवकाश एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिये वेद मार्ग पर चलना अनिवार्य है। ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान हो जाने और पाप का भोग समाप्त हो जाने पर मनुष्य योग साधना द्वारा ईश्वर का प्रत्यक्ष करने में सफल होता है। ईश्वर का प्रत्यक्ष होना ही मोक्ष की प्राप्ति की अन्तिम परीक्षा है। इसमें उत्तीर्ण होने पर ही उस योगी मनुष्य का मोक्ष श्रेणी की आत्माओं में जाना व उन्नति होना सम्भव होता है। मनुष्य की आत्मा को जब तक मोक्ष नहीं मिलेगा, वह नाना योनियों में जन्म लेकर दुःख पाती रहेगी। अतः सभी मनुष्यों को मोक्ष प्राप्ति के लिये अन्य अज्ञान के मार्गों का त्याग कर वेद मार्ग पर आना चाहिये। यही मार्ग ईश्वर व मोक्ष तक पहुंचता है। अन्य मार्ग आपको जन्म-मरण व दुःख की ओर ही ले जाते हैं। वेद की सभी मान्यतायें तर्क व युक्ति की कसौटी पर भी सत्य हैं। अतः वेद ही सभी मनुष्यों का सत्य व ईश्वर द्वारा मान्य धर्म है। वेदाध्ययन ही सुख का आधार होने सहित मनुष्य जीवन में अपनी आत्मा, पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, आत्मोन्नति व मोक्ष आदि को जानने में सहायक है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य