धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

धर्म के ज्ञान के कारण बढ़ रहे हैं अपराध

धर्म के विषय में गीता में एक श्लोक है : स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः

अर्थात अपने धर्म के लिए मरना भी श्रेष्ठ है ।दूसरे धर्म के लिए मरना भयानक यानी की पीड़ा पहुंचाने वाला है। हिंदू धर्म में कहा गया है, की अपने धर्म के लिए अगर जान भी देनी पड़े तो व्यक्ति को संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि सब धर्म के लिए मरने पर गति की प्राप्ति होती है। व्यक्ति को यत्नपूर्वक अपने निज धर्म की रक्षा करनी चाहिए और सब धर्म की निंदा सुनने से बचना चाहिए। लेकिन आजकल अज्ञानता के कारण हमें अपने धर्म की पूर्णता और उसके विषय की जानकारी के अभाव में व्यक्ति अपने धर्म का मजाक उड़ाते बनाते देखते हैं ।यथा तथा आपको हिंदू धर्म के जोक्स देखने और सुनने को मिल जाएंगे ,जिसका उत्तरदायित्व हम हिंदुओं पर ही है क्योंकि हमने अपने धर्म का विस्तार तो किया परंतु प्रचार करने में चुक हो गई ।अपने भावी पीढ़ी तक धर्म का दायित्व देने में शायद हम असमर्थ हो गए ,कारण यह कि हमें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास नहीं शायद ।जो धर्म सबसे अधिक प्राचीन है ,जिसकी प्रमाणिकता पर गहन अध्ययन और रिसर्च कर के वैज्ञानिक भी प्रमाणपत्र दे चुके है,उसी धर्म को आज लुप्त होने की कगार पर आ पहुंचा दिया है। यह हम कह सकते हैं क्योंकि हमारे लिखे गए वेद ग्रंथ की जानकारी आज किसी को नहीं ।यह बात अलग है कि अंग्रेज भी और वैज्ञानिक भी गहन अध्ययन करके गीता के श्लोक पर रिसर्च प्रमाणित किया जा चुका है ।शब्द,यानी ध्वनि अंतरिक्ष में गूँजती रहती हैं।

आज वैज्ञानिक रिसर्च कर के भगवान कृष्ण के वाणी ध्वनि को कैद करना चाहते हैं।

ॐ शब्द की ध्वनि को अंतरिक्ष मे सुना जा चुका है, जो कि प्रमाणित है।

दुःखद ये है कि हम अपने बच्चों को सँस्कृति और संस्कार दोनों नही दे पा रहे,जिस की कारण आज धर्म की क्षति हो रही हैं।

अगर सभी अपने अपने धर्म का पालन ,वेदों या निजी धर्म ग्रन्थों, जैसे गीता,बाइबल,कुरान और गुरुग्रन्थ के अनुसरण से करे तो सद्गति तो निश्चय ही मिलेगी,देश भी स्वर्ग और जन्नत से कम हसीन ना होगा।

धरती पर ही स्वर्ग होगा,लेकिन ये सब किताबी बातें कौन मानता है।

इसी को थोडा़ पलट कर मैं देश के विषय में भी कह सकते है।

स्वदेशे निधनं श्रेयः परदेशो भयावहः

पर आज कल उल्टा हो गया है,सभी को अपने धर्म का पूर्णताः ज्ञान का आभाव है।

स्वधर्म निन्दनम श्रेयः,पर धर्मो श्रेष्टम।

जिसके कारण अपराध की अधिकता और धार्मिक कार्यो की लुप्तता देखने को मिलती है।भ्र्ष्टाचार भी इसी सोच का प्रणाम है।धर्म हमे गलत कार्य करने से रोकता है और व्यक्ति के मन मे नरक का भय दिला कर उसे दंड व्यवस्था पर यकीन करवाता है।जिस कारण वह पाप यानी कि गलत कार्य करने से पहले सौ बार सोचता है और सद्गति प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है।

आज कल के समय मे किसी को समय नही की वो ग्रन्थों को सुने, सोचे और माने। सब अपने मन की बात मानते हैं और सिर्फ सुख प्राप्ति में लगे रहते हैं। अब ये सामाजिक सोच हिंदू धर्म को किस पैमाने पर ले जायेगी सोचनीय है।

संध्या चतुर्वेदी

मथुरा उप

संध्या चतुर्वेदी

काव्य संध्या मथुरा (उ.प्र.) ईमेल sandhyachaturvedi76@gmail.com