लघुकथा

महाप्रयाण

‘चलो उठ भी जाओ, इतना गुस्सा, ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा। देखो अब तो बच्चे भी अपनी अपनी दुनिया में मग्न हो गये हैं। हमें ही एक दूसरे का सहारा बनना है।’
‘मुझे नहीं बात करनी तुमसे, बुढापे में भी मुझे चिढाते हो, माना गाँव से आई थी, पर तुम्हारे रंग ढंग में रम गई थी ना। बस कुछ अंग्रेजी शब्द होंठ मोड़कर मुँह बनाकर नहीं बोल पाती।’
‘अरे मेरी रानी मै तो बस समय पास करने के लिए चुहलबाजी करता हूँ। कान पकड़ा; बच्चों ने तो अनाथ ही कर दिया है। अच्छा नहीं चिढ़ाया करूँगा, अब कभी नाराज मत होना।’
‘क्यों दिल छोटा करते हो जी, हम हैं ना जीवन भर साथ निभाने को। बहुत बड़े आफिसर बनते हो, बात बात पर तो बच्चों की तरह आँखे गीली हो जाती है।’
‘सुनो ना, कुछ तो बोलो मैं तो नाराज नहीं हूँ, तुम क्यों मुँह फुलाये हुए हो। ओह किसने नीचे लिटा दिया। ठंड लग जाएगी, उठो ना। मुझसे नाराज होकर सबको बुलावा भेज दिया, हाय बच्चे क्या सोचेंगे, उठो ना…पति को उठाती आवाज़ शिथिल पड़ गई, साँस साँस से जा मिली, जन्मों-जन्मों का साथ निभाने के लिए आत्मा महाप्रयाण पर निकल पड़ी।
किरण बरनवाल 

किरण बरनवाल

मैं जमशेदपुर में रहती हूँ और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से स्नातक किया।एक सफल गृहणी के साथ लेखन में रुचि है।युवावस्था से ही हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष झुकाव रहा।