सामाजिक

आलेख– सुरक्षा कवच बचाव का ढाल बनें, बदलें का अस्त्र नहीं!

स्वामी विवेकानंद ने अपने वक्तव्य में कहा है, कि हिन्दू समाज में से एक मुस्लिम या ईसाई बने, इसका मतलब यह नहीं कि एक हिन्दू कम हुआ बल्कि इसका मतलब हिन्दू समाज का एक दुश्मन और बढा । यह प्रवृत्ति हमारे समाज में तेजी से बढ़ रही। तो ऐसा लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था के नाक के नीचे हो कैसे रहा। यह बड़ा विषय बन जाता है। ठीक है, धर्म व्यक्ति का संवैधानिक दृष्टिकोण से व्यक्तिगत मसला है। फ़िर भी बिना किसी समस्या और प्रलोभन के कोई अपना देश, समाज और घर जब नहीं छोड़ने को तैयार होता। फ़िर धर्म में बदलाव कैसे कर सकता है। यह बड़ा प्रश्न है। आज के दौर में आदिवासी और पिछड़े तबक़े के लोग हिन्दू धर्म से विरक्त हो, ईसाइयत आदि का दामन थाम रहें। तो कहीं न कहीं ईसाइयत की मिशनरियां प्रलोभन आदि देकर अपना धर्म बढ़ा रहीं। वहीं एक हम हिन्दू हैं, कि तमाम कुरीतियों आदि का चोला ओढ़कर अपने धर्म के पतन के गवाह बन रहे।

दलित और आदिवासियों का ईसाई मिशनरी तेज़ी से देश में धर्म परिवर्तन करा रही। जिसका खुलासा अखबारों की सुर्खियां भी बनता है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अरुणाचल प्रदेश में ईसाई जनसंख्या में सबसे ज्यादा हालिया दौर में वृद्धि दर्ज की गई है। सेंसस रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1971 में ईसाई समुदाय की संख्या अरुणाचल प्रदेश में 1 फ़ीसद थी, जो वर्ष 2011 में बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई है। जबकि हिंदू जनसंख्या 2001 में 34.6 प्रतिशत थी जो कि घटकर 2011 में मात्र 29 फ़ीसद रह गई। अगर जनसंख्या में इस स्तर पर बदलाव दिख रहा, तो मतलब साफ़ है। कुछ गड़बड़झाला तो ज़रूर है।

ऐसे में बात सियासी तौर पर हो, या किसी अन्य स्तर से। अखण्ड भारत और राष्ट्रवाद की बलवती चर्चा होती है। अब प्रश्न यहीं जब बात एक सुनियोजित और सुसंगत राष्ट्र की होती है, तो उसका निर्माण कैसे होता है। यह कोई तर्क-वितर्क का विषय नहीं। एक राष्ट्र का निर्माण मकान बना देने या पेड़ लगा देने से तो होगा नहीं। राष्ट्र का निर्माण समाज और समाज में रहने वाले लोगों से होता है। ऐसे में जब हम बात करते हैं, एक उन्नतशील और समृद्धिपूर्ण राष्ट्र की। तो उसमें हर एक तबक़े का योगदान होना चाहिए। फ़िर वह योगदान किसी भी रूप में हो। यह मायने नहीं रखता। अगर तफसील से यहां एक बात देखी जाएं। तो यक्ष प्रश्न यही, कि जो सामाजिक ताना-बाना आधुनिक होते भारत में चल रहा। उसमें सभी को बराबरी के स्तर से प्रतिनिधित्व प्राप्त हो रहा? उत्तर नकारात्मक ही होगा। हां में होगा भी कैसे, अगर हाँ में होता तो दलित महिलाओं की जीवन सामान्य महिलाओं के मुकाबले 15 वर्ष कम नहीं होता। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘टर्निंग प्राॅमिसेज इनटू एक्शन : जेंडर इक्वेलिटी इन 2030 एजेंडा’ नाम की एक रिपोर्ट आती है। जिसके मुताबिक देश में दलित वर्ग की महिलाओं की औसत उम्र ऊंची जाति की महिलाओं की तुलना में 14.6 वर्ष कम होती है। रिपोर्ट के मुताबिक यह कमी कमजोर साफ-सफाई, पानी की अपर्याप्त आपूर्ति और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के साथ जाति का भेद आदि के कारण होती है।

ऐसे में यहां एक बात दृष्टिगत करने वाली यह भी है, जब हम संवैधनिक और लोकतांत्रिक देश की दुहाई देते हैं। फ़िर सभी को समान अधिकार और हक़ स्वतः प्राप्त हो जाने चाहिए थे, लेकिन कुछ सामाजिक और राजनीतिक पूर्वाग्रहों की वज़ह से आज़तक समाज का कुछ अंश ऐसा शेष रह गया है। जो मुख्यधारा में अपने अस्तित्व को देखने के लिए पलक पसारे अभी तक इंतजार कर रहा है। ऐसा नहीं इस तबक़े के हितों को अगड़े और पहले से सुविधा सम्पन्न समाज ने ही छीना है, बल्कि उनके समाज के जो सुविधासम्पन्न हो गए हैं। वो अपने समाज के पिछड़े हुए लोगों की क़िस्मत पर कुंडली फेरकर बैठ गए हैं। हम यहां बात अनुसूचित जाति और जनजातियों की कर रहें। ये हमारे देश का एक ऐसा हिस्सा हैं, जिसे आज के आधुनिक और सूचना- क्रांति के दौर में बरगलाने की कोशिश तीव्रता से चल रहीं। फ़िर उन्हें मानते हैं। समाज में वह उचित स्थान नहीं मिला वर्षों से। जो उन्हें मिलना चाहिए, लेकिन क्या देश और समाज की बनी-बनाई व्यवस्था में बरगलाने की व्यवस्था से ही सब कार्य सफ़ल सिद्ध हो सकता है। तो यहां कहना यहीं न्यायसंगत होगा, बिल्कुल नहीं। आज अगर अनुसूचित जाति को साम-दाम के बल पर दूसरे धर्म का अनुयायी बनाया जा रहा। अगर ऐसी प्रवृत्ति तीव्रता से घटित हो रही। तो यह हिन्दू और हिंदुस्तान के लिए खतरा ही है। यह कोई क्यों समय रहते समझने को तैयार नहीं।

आज देश के लगभग हर हिस्से से यह खबरें अख़बारी पन्नों का हिस्सा बनती दिख जाती हैं, कि फलां जगह चल रहा था ईसाई धर्म में लोगों को परिवर्तित करने का खेल। तो क्या क़भी हमने और हमारी व्यवस्था ने इस बात पर विचार करने की कोशिश की, क्यों हमारे हिन्दू समाज की निचली जातियां दूसरे धर्म की तरफ़ झुकाव दिखा रही। इसका कारण साफ़ है, हमारे धर्म में रूढ़ियाँ और विसंगितयों ने काफ़ी पहले से घर कर लिया है। जिससे निज़ात हम आज के आधुनिक दौर में भी नहीं ढूढ पा रहें। जब मानवता को ही सबसे बड़ा धर्म माना जाने लगा है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लोग बौद्ध और ईसाई धर्म की शरण में तेज़ी से जा रहें। तो उसका पहला कारण यह है, वे अपने धर्म में वर्षों से सताए जा रहें। फ़िर वह सामाजिक, आर्थिक और मानसिक किसी भी स्तर पर हो। उन्हें एक सामाजिक प्राणी होने का दायित्व संवैधानिक देश में भी पूर्णतः से नहीं मिल रहा, इसलिए हिन्दू धर्म से विरक्त होकर दूसरे धर्मों की शरण ले रहें।

ऐसे में जब चांद पर घर और मंगल पर जाने की जदोजहद में वैश्विक परिदृश्य लगा हुआ है। हम अगड़ी और पिछड़ी के फ़ेर में उलझे हुए हैं। यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात प्रजातंत्र और संवैधानिक दृष्टि से है। हम ख़ुद भी बड़े-बड़े दिवास्वप्न में जी रहें हैं। हां सच सुना आपने। कहती है न हमारी नुमाइंदगी व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था विश्वगुरु और आधुनिक बनने की बात। क्या विश्वगुरु ऐसे होता है, जहाँ ऊंच-नीच का फ़र्क़ हो। अगर ऐसी स्थिति में ख़ुदा न करें हम विश्वगुरु की उपाधि से नामित भी हो जाएं, तो विश्वपटल को क्या सीख दे पाएंगे हम? आधुनिक भारत की ढपली जिस दौर में हम पीट रहें। उस दौर में हम अपने देश में ही समरसता और बराबरी की लड़ाई के लिए जदोजहद में उलझे हुए हैं। फ़िर क्या और कैसे कहा जाएं। हम ख़ड़े किस दिशा में हैं। वह अपने आप नज़र आता है। संवैधानिक उक्तियों के नाक के नीचे अगर गैरबराबरी और अन्य लक्षण दिख जाते हैं, तो यह बड़े दुःख की बात सामाजिक व्यवस्था के लिए है।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जातियों की स्थिति आज भी काफ़ी दयनीय बनी हुई है। इसके पीछे का कारण भले शोध का विषय हो सकता है, फिर भी यह एक सभ्य और अच्छे राष्ट्र की निशानी तो कतई नहीं कही जा सकती। आज दलित यानी जिसे महात्मा गांधी जी ने भी हरिजन कहा, निहितार्थ यह कि वे जो भी “हरि के जन” हैं। उनकी स्थिति समाज में आज़ादी के सात दशक बाद कहाँ है। तो इसकी जब तफसील से जांच-पड़ताल होती है। तो पता चलता है, कि समाज के इस हिस्से की अवाम के लिए लिए शैक्षणिक, संवैधानिक पदों आदि पर जगह तो मिल रही, लेकिन उस मियाद में नहीं। जितनी मिलनी चाहिए। जब संविधान व्यक्ति को जीवन और मरण की स्वतंत्रता देता है। व्यक्ति कैसे जीवन जिएं, वह उक्त व्यक्ति का निजी मामला है। फिर अगर कोई दलित घोड़ी पर चढ़कर अपनी बारात निकालना चाहता है। फिर इस पर किसी को कोई आपत्ति क्यों होती है? जब यहां तक कहा गया है, कोई भी व्यक्ति किसी ख़ास जाति और कुल में जन्म आदि लेने मात्र से पंडित आदि नहीं हो सकता, बल्कि उसके कर्म उसके चरित्र का निर्धारण करने वाला होता है। फ़िर समाज व्यर्थ के दिखावे में आज के इक्कीसवीं सदी में जीने को क्यों लालयित और उत्सुक नज़र आता है, यह कभी-कभार समझ से परे समझ आता है। जब ईश्वर ने किसी को बनाने में फ़र्क नहीं किया, फ़िर आदमी धरती पर आने के बाद आदमी-आदमी में भेद क्यों करने लगता है। बात यहां दलितों और पिछड़ों पर होने वाले कुछ ज्यादतियों की कर लेते हैं। अगस्त 2016 में गुजरात के ऊना में दलित की पिटाई हो जाती है। नवम्बर 2017 में अजमेर में दलित को इसलिए पीट दिया जाता है, क्योंकि वह अपनी बारात घोड़ी पर बैठ कर निकालना चाहता है, जिसे समाज का एक हिस्सा शायद अपने आत्मसम्मान के साथ खिलवाड़ के रूप में देखने लगता है। इतना ही नहीं अनुसूचित जाति और जनजातियों के खिलाफ ज्यादती तो वर्षों से होती आई है, हम हालिया कुछ घटनाओं का ज़िक्र ही कर रहें। अप्रैल 2018 में गुजरात में घोड़ी पालने के कारण निचली जाति के युवक की हत्या कर दी जाती है। इसके अलावा जनवरी 2016 में मत न देने पर फरीदाबाद में दलित की पिटाई कर दी जाती है। इसके इतर दिसम्बर 2015 में सागर में दलित समाज के व्यक्ति को सिर पर जूता रखकर चलने का फ़रमान दिया जाता है। ये घटनाएं यह बताने के लिए काफ़ी हैं, हम कहीं से कहीं तक न आधुनिक हो पा रहें और न ही पुरातन रूढ़ियों को त्याग पा रहें। इसके पीछे का कारण कुछ भी हो, राजनीति या तो अपनी रोटी सेंकने के लिए समाज में भेदभाव बनाएं रखना चाहती हो, या समाज के लोग भी एकांकी सोच के गिरफ्त में आ गए हैं। फिर भी यह किसी भी सांचे की दृष्टि से सही नहीं। जिसमें बदलाव समय, काल सभी की आवश्यकता है, वरना सामाजिक संरचना में भारी उथल-पुथल आगामी समय में दृष्टिगोचर हो सकता है।

राष्ट्र का निर्माण वहां के लोगों से होता है। जब नागरिक ही समान नहीं, फ़िर बेहतर राष्ट्र की संकल्पना कैसे अभिभूत हो सकती है। अनुच्छेद 46 अनुसूचित जाति और जनजातियों के हितों की रक्षा करने का भाव रखती है। साथ में अनुच्छेद 330, 332, 335 और 342 में इन जातियों के हित संरक्षण के विशेष प्रबंध करने और अगर पांचवीं और छठवीं अनुसूची में भी विशेष प्रावधान के बाद इन जातियों को समाज में उचित स्थान और प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा। फिर अब बदलाव की ज़रूरत तो मनोधारणा में है । तभी कोई सार्थक परिणाम फ़लीभूत होगा।

एनसीआरबी के आँकड़े इस बात की तस्दीक़ करते हैं, कि दलितों और सामाजिक परिवेश में वंचित तबक़ा सिर्फ़ अपने मानवीय अधिकारों से ही छिटका हुआ नही है। अपितु वह सामाजिक यातनाओं से भी आएं दिन दो-चार हो रहा है। एनसीआरबी का आंकड़ा यह कहता है, कि हर 15 मिनट में एक दलित उत्पीड़न का शिकार होता है। दलित समाज की हर रोज़ छह महिलाएं दुष्कर्म का शिकार होती है। इसके अलावा 2007-17 के मध्य दलित उत्पीड़न के मामलों में अगर 66 फ़ीसद का इज़ाफ़ा दर्ज किया गया, मतलब साफ़ है अगड़ी-पिछड़ी का खेल अभी भी हमारे समाज में कम नहीं हुआ है। यहाँ बात अगर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के ख़िलाफ़ 2016 में दर्ज हुए अपराध की बात करें। तो 2016 में अनुसूचित जाति के 40801 लोग अपराध के शिकार हुए।। वही अनुसूचित जनजाति के 6568 मामले सामने आए। इन सभी मामलों में अव्वल उत्तरप्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे राज्य ही हैं। जहाँ पर जातीयता की जकड़न आज़ादी के सात दशक बाद भी काफ़ी मक्कड़जाल में उलझी हुई है।

ऐसे में अगर एससी-एसटी वर्ग के मामलों 2016 में 11060 जांच के लिए उठा और 77 फ़ीसद मामलों पर चार्जशीट दाख़िल हुई। इसके अलावा 2016 में पुराने एससी-एसटी एक्ट के 45233 मामले लंबित रह गए और 2016 में ही कुल 4546 मामलों में ट्रायल पूरा हुआ। वहीं सजा 701 मामलों में ही हुई, और 3845 मामलों में आरोपी बरी हो गए। तो यह स्पष्ट है, बचाव के कई रास्ते आरोपी के पास होते हैं। तो ऐसे में अगर आज भी समाज का एक तबक़ा ऐसा है, जो कई मायनों में वंचित और दबा-कुचला महसूस कर रहा। तो उसे कुछ अधिकार तो होने चाहिए। जिससे वह अपनी रक्षा कर सकें, लेकिन इसका मतलब यह कतई न हो। वह उस मानवीय रक्षा के लिए मिले कवच का उपयोग दूसरों को बेजा परेशान करने और सामाजिक व्यवस्था को दूषित करने पर उतारू हो जाएं।

सरकार ने अगर कुछ सोचकर एससी-एसटी एक्ट पर पुनः राज़ी हो गई है, तो यह जिम्मेदारी एससी-एसटी वर्ग की है, कि वे सरकारी कवच का इस्तेमाल अपने बचाव में ही करें, वह कवच ही रहना चाहिए। बदला लेने का अस्त्र नहीं। इसके अलावा आज के दौर में सिर्फ़ क़ानून में बदलाव अथवा क़ानून पर अड़े रहना समाज के गतिमान होने का वाहक नहीं होना चाहिए, सामाजिक सोच में परिवर्तन और सोचने-समझने का खुला आकाश होना चाहिए। फ़िर वह कोई भी समाज हो, उसे कूप-मण्डूक से बाहर निकलना होगा। तभी सामाजिक समरसता और बन्धुता की भावना बढ़ेगी और हिन्दू धर्म में फूट डालने वालों की नीयत का दामन हो पाएगा। साथ में बेहतर राष्ट्र की संकल्पना उभर कर विश्वपटल पर स्थापित होगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896