सामाजिक

आलेख– हिंसा और सेक्स परोसने के चक्कर में सिनेमा से दूर हो रहा सामाजिक पक्ष

प्रौद्योगिकी के आविष्कार और नवाचारों ने मानव समाज के संचार और संवाद में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। ऐसे में जिस संवाद को सहज, सरल और सुलभ होना चाहिए था, वह विकृत, अप्रासंगिक और पेचीदा होता जा रहा। बात चाहें सिनेमा की ही क्यों न हो। आज वह व्यवसायिकता की गिरफ्त में उलझती जा रहीं। जिस कारणवश वह सामाजिक सरोकार आदि से दूर भागती दीप्तमान हो रही। ऐसा नहीं जो सिनेमा समाज को आईना दिखाने का कार्य कर रहीं थी, तत्कालीन दौर में वह पूर्णरूपेण अपने उद्देश्य से भटक गई है। आज भी समाज में व्याप्त बुराइयों और कुरीतियों पर प्रहार करने के लिए सिनेमा प्रयासरत है, लेकिन कहीं न कहीं सिनेमा को मिर्च-मसाला लगाकर परोसने की फ़ितरत हमारी संस्कृति और सभ्यता को ठेस पहुँचाने का कार्य करती है। बात यहां भारतीय सिनेमा की हो रही। तो यह सच है, कि 14 मार्च 1931 को आलमआरा के प्रदर्शन के बाद भले ही भारतीय सिनेमा मूक दौर की परिधि से बाहर आ गया, लेकिन क्या हमारे यहां बनने वाली फिल्में शादी-विवाह और सात फेरों की परिधि से बाहर निकल पाई हैं? क्या हमारा हिंदी सिनेमा टोटकों और दोहराओं से आज़ाद हो पाया? उत्तर हां में मिलना मुश्किल है। आलमआरा का अर्थ अगर तफसील से देखे, तो जगत का प्रकाशमय हो जाना है। परंतु लगता यहीं है अंधेरे से बाहर तो हमारा हिंदी सिनेमा निकल ही नहीं पा रहा। वरना आज के दौर में सामाजिक सरोकार और समाज की मुख्यधारा से दूर अवाम को मुख्यधारा से जोड़ने की सीख हमारा सिनेमा देता। ऐसे में समझ यही आता है, कि पैसों और ग्लैमर की चाहत ने सिनेमा का जनवादी और जनसरोकारों से जुड़ा पहलू विकसित होने ही नहीं दिया गया। जो कला समाज को नई दिशा और दशा देने वाला होना चाहिए था, वह धंधा और मुनाफ़े का माध्यम बनकर ही सिकुड़ता जा रहा। आख़िर क्यों जब हम सिनेमा पर तफसील से दृष्टि डालते हैं। तो यह एहसास होता है, कि गांव, गरीब और आदिवासियों आदि का जीवन सिनेमा का हिस्सा बनने से लगभग अछूता रहा है। या फिर सिर्फ़ कुछ फिल्में इनके इर्दगिर्द घूमती दिखती हैं। इसका कारण आज के दौर में बढ़ती बाजारवाद की प्रबलता और सामाजिक सोच का भौतिकवादी युग में खोखला हो जाना है।

आज देखें, तो सिनेमा की बदलती पटकथा ने गोपन विमर्शों को भी खुले में लाकर खड़ा कर दिया है। इसलिए सिनेमा आज मिर्च-मसाले के साथ सेक्स को परोसने का कार्य कर रहा है। आज अश्लीलता और फूहड़पन के बल पर अपना कारोबार चलाया जा रहा। तो इसके पीछे अवाम की मौन स्वीकृति भी है। सिनेमा के नाम पर सेक्स और आइटम सॉन्ग परोसे जा रहें। साथ में हमारे पौराणिक चरित्रों को भी मसाला लगाकर प्रस्तुत किया जा रहा। आज जिस हिसाब से सिनेमा सेक्स और कामो उत्तेजना को परोस रहा। वह हमारी संस्कृति को दूषित करने का काम कर रहीं। पैसे की होड़ में नंगई की दौड़ हो रहीं। वह हमारे पौराणिक और संस्कृतिक रूप से सशक्त देश के लिहाज़ से कतई सही नहीं। जिस सिनेमा को शुरुआती दौर में महिला कलाकार ढूढ़ने के लिए वैश्यालय तक का चक्कर काटना पड़ रहा था। वह आज का समय आते-आते सिर्फ़ देह के चर्चा का विषय बनता जा रहा। वह एक सभ्य और संस्कृतिक रूप से सम्पन्न राष्ट्र के लिहाज़ से कतई सही नहीं। जहर, कलयुग, ख्वाहिश, जिस्म आदि ने एक नए तरीक़े की हिंदुस्तानी औरत को आज के दौर में बाज़ार में उतार दिया है। जिसके बलबूते भारतीय संस्कृति और अस्मिता को खुलेआम लूटने का कार्य हो रहा। कुछ समय पूर्व स्त्री को सबके सामने छूने की हिम्मत नहीं होती थी, आज का सिनेमा बिना उसी स्त्री को दर्जनों बार चूमें फ़िल्म नहीं बना पाता। आख़िर यह हमारे समाज को किधर ले जाने की साज़िश हो रहीं।

ऐसे में आज बाजारवाद ने नीति, नियम और संस्कृति सभी को धत्ता बताकर रख दिया है। यह कहना अतिश्योक्ति कतई समझ नहीं आता। फ़िर वह क्षेत्र चाहें कोई भी क्यों न हो। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अटूट पक्षधरों ने कभी न सोचा होगा, कि कभी पूंजीवाद का ऐसा दौर भी आएगा। जब मनोरंजन और शिक्षित करने के साथ समाज को कुरीतियों से दूर कराने के उद्देश्य से आया सिनेमा और धारावहिक फिल्में खुले यौन संबंध , विवाह से पूर्व यौन संतुष्टि और संयुक्त घर-परिवार को तोड़कर एकल परिवार की परिभाषा गढ़ेगा, लेकिन आज हमारा सिनेमा वक़ालत इन्हीं विषयों की कर रहा। उसका आगमन किस लिए हुआ था, वह उद्देश्य पीछे छूट चुका है। मानव-जीवन से नीरसता दूर करने के लिए आया सिनेमा। उसके बाद में इसके स्वरूप में तनिक बदलाव आया तो वह मनोरंजन के साथ संचार का वाहक बना। जिसके प्रमुख स्रोत्र कहानी, नाटक कथा आदि रहें।धीरे-धीरे विज्ञान ने प्रगति की जिसके चलते सूचना तंत्र का मोह रुपी मक्कड़जाल घर-घर में पहुँच गया । विज्ञान की प्रगति प्रशस्ति के योग्य है, लेकिन तब जब वह प्रगति हमारे सांस्कृतिक व पारिवारिक मूल्यों को विकास के पथ की ओर ले जाए ना कि पतन की ओर । हमारा देश अपनी संस्कृति अपने संस्कारों की अनूठी छाप के कारण विश्व पटल पर पहचान रखता है। हमारे यहाँ की संस्कृति परिवारवाद पर रची-बसी है, जिसे अगर स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता के नाम पर आघात पहुँचाया जा रहा। वह किसी भी दृष्टि से जायज़ नहीं। जिस टीवी पर धरावाहिकों और रिएलिटी शो के माध्यम से सुंदरियों की खोज की जा रही है वहीं फिल्मों के माध्यम से लड़कियां पटाने के गुरु सिखाए जा रहे हैं। जहां पर सेक्स और हिंसा ही सब कुछ रह गया है, बाकी सब गौण । वैसी वैज्ञानिक प्रगति की जितनी भर्त्सना की जाएं वह कम ही होगी।

वैसे बात अगर सिनेमा और भारतीय संस्कृति की करें, तो भारतीय संस्कृति और रीति-रिवाजों को संरक्षित करने वाली फिल्में काफ़ी समय से बनती रहीं हैं। जिनका निर्माण हालिया दशक के दरमियान कम होता दिख रहा। हाँ यहां एक बात ओर यह नहीं कि ऐसी फ़िल्मो का निर्माण एकदम ख़त्म हो गया हो। बस हुआ कुछ यूं है, कि राजा-महाराजाओं के शौर्य व वीर गाथाओं पर बनने वाली सिनेमा में भी मसाले की मात्रा बढ़ा दी गई है। वही हाल पौराणिक कथाओं के साथ हो रहा। जो बढ़ते बाजारवाद का परिणाम है। अगर हम बात भारतीय सिनेमा के संस्कृतिक और सामाजिक पहलू को अक्षुण्य बनाएं रखने की कर रहें। तो इन फिल्मों की एक लंबी श्रृंखला है। जिसका सकारात्मक प्रभाव हमारे समाज पर बखूबी देखने को भी मिला है। हिंदी सिनेमा में नव- वास्तविकवाद तब दिखा जब विमल राय की दो बीघा जमीन, देवदास और मधुमती व राजकपूर की बूट पालिश, श्री 420 आई। साठ के दशक में आई मुगल आजम ने नया रिकार्ड बनाया और सच्ची प्रेम कहानी को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया। उसके बाद जिस देश में गंगा बहती है, वासु भटटाचार्य की तीसरी कसम, देव आनन्द की गाईड सभी फिल्में समाज से जुडी हुई थी। उसके बाद ही भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी। जिसमें युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलाम बाम्बे के लिए केन्स में गोल्डन कैमरा आवार्ड जीता। नब्बे के दशक में सूरज बडजात्या की फिल्म मैंने प्यार किया, हम आपके के कौन, हम साथ-साथ हैं और यशराज की दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे ने रोमांस, शादी के रीति-रिवाज आदि की परिभाषा ही बदल दी।

ऐसे में भारतीय सिनेमा ने काफ़ी उतार-चढ़ाव का सामना किया है। शुरुआत का दौर था, जब महिला किरदार निभाने के लिए आधी आबादी का कोई भी आगे आने को तत्पर नहीं था। एक आज का दौर है, महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर फिल्में आ रही। महिला सिनेमा का अहम केंद्रबिंदु होती है। इससे भी आगे कहें, तो आज आयटम सांग किए जा रहे। एक लंबे कालखंड के दरमियान भारतीय सिनेमा में राजा हरिश्चंद्र से लेकर आज की पिंक, पैडमैन जैसी महिलाओं की समस्याओं पर केंद्रित सिनेमा के साथ ‘रा.वन’ जैसी उच्च प्रौद्योगिकी का सफ़र तय कर चुका है। एक लंबे कालखंड में सिनेमा ने हमें गौरवान्वित होने का काफ़ी समय दिया, लेकिन अब अगर 2000 के बाद के सिनेमा की बात की जाएं, तो बाजारवाद के प्रभुत्व ने अश्लीलता और हिंसा का वर्चस्व को बढ़ावा दिया है। जो हमारी देशी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। आज समझ नहीं आता, जब हमारा समाज असमानता, गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ग्रस्त है। इसके अलावा ग्रामीण परिवेश भी विभिन्न कुरीतियों और दुश्वारियों से पीड़ित हैं। फ़िर उनका चित्रण क्यों नहीं किया जाता।

आज तो पैसे के मोह में सेक्स और हिंसा को परोसा जा रहा। जिस कारणवश अगर एकाध फिल्मों को छोड़ दिया जाएं। तो सामाजिक सरोकार की दृष्टि भारतीय सिनेमा से दूर होती जा रहीं। वो भी क्या वक्त था, जब 1949 में राजकपूर की फिल्म ‘बरसात’ को सेंसर बोर्ड द्वारा यू सर्टिफिकेट सिर्फ इसलिए नही दिया गया, क्योंकि उसमे अभिनेत्री नर्गिश और निम्मी ने दुपट्टा नहीं लगाया था। अगर आज के दौर में सेंसर बोर्ड ऐसे कड़े रुख अख्तियार करने लगे तो शायद फ़िल्म में कुछ भी देखने लायक ही न बचें। मानते हैं, समय बदल गया है अब हम इक्कीसवीं सदी में जी रहें, तो इसका कतई मतलब यह तो नहीं, हम नंगई पर उतारू हो जाएं। हम क्यों आज कोई ऐसी पटकथा नहीं लिख पा रहें, जो हॉलीवुड को टक्कर दे सकें। क्या हमारे यहां ऐसी सोच के धनी शिल्पकार और कलाकार नहीं। बिल्कुल हैं, लेकिन नंगई के बल पर धन कमाने का आसान तरीका ईजात कर लिया गया है। जिसको मौन स्वीकृति हमारे समाज ने भी दी है। अश्लील तथा हिंसात्मक सिनेमा सिर्फ हमारे समाज को ही दूषित नहीं करता, बल्कि संवैधानिक मूल्यों को भी चोट करता है। हमारा संविधान किसी भी ऐसी चीज के प्रदर्शन की अनुमति नही देता है, जिससे हमारा सामाजिक वातावरण बिगड़े और उसमे व्यभिचारी, उत्तेजक और हिंसात्मक भावनाओं का जन्म हो, पर आज का सिनेमा जो समाज को शिक्षित और मनोरंजित करने का ठेकेदार है, वह संविधान को ताक पर रखकर, मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता और हिंसा को परोस रहा। जिससे समाज में अपराध और व्यभिचार बढ़ रहा है। आज हमारे हिंदी सिनेमा का पर्याय प्यार के नाम पर सेक्स, धोखा और एक्शन के नाम पर अत्यधिक अनावश्यक हिंसा बन कर रह गया है।

1949 में सिमोन द बोवुआर ने अपनी क़िताब द सेकंड सेक्स में कहा, कि औरत पैदा नहीं होती, अपितु बनाई जाती हैं। यह बात आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि हम दुहाई अपनी संस्कृति और सभ्यता की भले देते हो पर भौतिक विकास के दौर में भी हम मानसिक और सामाजिक स्तर पर आधी आबादी को वह स्थान, सम्मान नहीं दे पाएं हैं। जिसकी हक़दार महिलाएं होती हैं। इसके इतर आज के निर्माता-निर्देशकों ने यह समझ लिया है, कि कोई बेहतर कहानी भी होगी। तो उसको पर्दे पर चलाने के लिए उसमें अश्लीलता और विवाद का तड़का होना चाहिए। यह प्रवृत्ति आख़िर क्यों आई। हमारे समाज की सोच में भी परिवर्तन आया है। ऐसा कहते आएं हैं, सिनेमा समाज को आईना दिखने का काम करती आई है, लेकिन अब समाज में जो घटित हो रहा। वहीं सिनेमा का आधार बन रहा। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। हमारे समाज ने पश्चिमी सभ्यता को तेज़ी से अंगीकार किया है। उसी के नतीज़तन सिनेमा में भी बदलाव की बयार बह चली है। तो ऐसे में अगर हम चाहते हैं, कि हमारी संस्कृति और सामाजिक ढांचे पर प्रहार न हो, तो बदलाव तो सामाजिक सोच में भी आनी चाहिए। आज के दौर में बड़ी मुश्किल से कोई ऐसी फ़िल्म आती है, जिसे घर के सभी बड़े-बुजुर्ग एक साथ बैठकर देख सकते हैं। इसके अलावा अब तो सिनेमा और सोप-ओपेरा के माध्यम से भारतीय रीति-रिवाजों और पौराणिक चरित्रों को भी दूषित किया जा रहा। ऐसा इसलिए हो रहा, क्योंकि विदेशी कम्पनियों आदि का निवेश होता है। तो अब जरूरत तो कहीं न कहीं अश्लीलता और मसाले का दायरा तय करना है। साथ में सिनेमा की पटकथा का लेखन हिंसा और सेक्स की तरफ़ से मोड़कर उसे समाज सुधार और अन्य विषयों की तरफ़ झुकाने का हो। तभी सार्थक सिनेमा और सभ्य समाज का चेहरा हमारे सामने प्रदर्शित हो पाएगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896