कविता

बूढ़ा घर

दीवारे झड़ने लगी थी
लकड़ियां गलने लगी थी
दर्द से रंग , बेरंग हो गया था
दरवाजे , खिड़कियां, रोशनदान
सब चरमराने लगे थे
घर के बूढ़े अब आँखों में
चुभने लगे थे —–
उफ्फ्फ ना कर सके वो
इसलिए ताले लगा दिए थे
घर के पिछवाड़े बने कूड़े में
उनके सिराहने लगा दिए थे
अब इन बूढो की ख्वाहिशे बढ़ गयी थी
लकड़ी की जगह बेटो की जरुरत पड़ गयी थी
अब मालूम हुआ की बोझ क्या होता। है
बूढ़ा बन कैसा लगता है
काश हम ने किया होता तो आज पाते
बूढ़ा घर छोड़ नया घर ना बनाते ||

डॉली अग्रवाल

पता - गुड़गांव ईमेल - dollyaggarwal76@gmail. com