राजनीति

चुनावी समर – आसान नहीं, भाजपा की डगर

2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए अग्निपरीक्षा साबित होने जा रही है। 2014 के चुनाव में भारी बहुमत के साथ भाजपा ने बाजी मार ली थी लेकिन इसके पीछे का कारण कांग्रेस सरकार के खिलाफ जन्मे आक्रोश ने भाजपा के पक्ष में मतदाताओं को आकर्षित किया। महंगाई, भ्रष्टाचार, पेट्रोल के बढ़ते दाम, डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत घट गयी थी। ऐसे में जनता के गुस्से को वोट बैंक में तब्दील करने की कवायद में भाजपा सफल रही।

पांच विधानसभाओं की चुनाव की तारीखें घोषित हो चुकी हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ताजा सर्वे के अनुसार भाजपा के हाथ से सत्ता जाती हुई नजर आ रही है। भारतीय राजनीति में सत्ता परिवर्तन का अपना ही इतिहास रहा है, इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी के हाथ से सत्ता फिसलना, अगले चुनाव में बहुमत के साथ इंदिरा गांधी का सत्ता में वापस आना, यह बताता है कि राजनीति का वह दौर था, जब एक दल और एक नेता पर जनता का विश्वास कायम था।

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने रखा। गुड गवर्नेंस और हिंदुत्व मुद्दा भाजपा के केंद्र बिंदु रहे, इससे चुनाव में सफलता मिली। आज विपक्ष के पास प्रधानमंत्री लायक ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले टक्कर में हो। लेकिन ये यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वादों और इरादों में चेहरा कितना सफल हुआ है, जनता अपने तरीके से तय करेगी, इस समय मतदाता के मन में भाजपा के खिलाफ वोट करने के कई कारण हो सकते हैं। वैसे नोटबंदी का सफल होना, गुड गवर्नेंस, बेरोजगारी ईंधन के बढ़ते दाम आदि ऐसे कारण है कि मतदाता मन बदल सकता है।
2014 के चुनाव में डिजिटल माध्यमों से भी चुनाव प्रचार में भाजपा प्रचार-रणनीति के कारण मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित किया था। कांग्रेस के खिलाफ बने आक्रोश को भूनाने में सफल रही। वर्तमान स्थिति में भाजपा के लिए सोशल मीडिया पर उपजता आक्रोश को अस्थायी समझने की भूल भाजपा के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। कारण मुद्दों को अस्थाई से स्थाई होने में देर नहीं लगती है, ऐसे में किसी खास वर्ग को लुभाने और वोट बैंक साधने की स्थिति भाजपा के लिए कमजोर साबित हो सकती है। भाजपा के प्रवक्ता अपने कई मीडिया बहसों में इस बात को भी स्वीकार कर चुके हैं कि एससी-एसटी एक्ट को लेकर उपजे आक्रोश में कांग्रेस को फायदा हो सकता है या कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाकर वोट बैंक साधने की कवायद बता रही है।
लोकसभा चुनाव के हिंदुत्व मुद्दा और लोकलुभावन वादे भाजपा सरकार के लिए संजीवनी बूटी का काम कर सकता है। उधर नोटबंदी और उसके बाद उसकी रिपोर्टों से साफ जाहिर होता है कि विशुद्ध चुनावी राजनीतिक फैसला था। विपक्ष अपनी कमजोर रणनीति के कारण सरकार को घेर पाने में असफल रही।
उत्तर प्रदेश में पिछली सपा सरकार को प्रदेश में बहुमत युवा मतदाताओं के बदौलत मिली थी, जिस तरह से सपा सरकार युवाओं के मुद्दों पर और जातिगत राजनीति के कारण चर्चा में आये लेकिन 5 साल के शासन के बाद

इन्हीं मुद्दों को लेकर युवा मतदाता सपा सरकार से आक्रोशित हो गई। इस कारण से भाजपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हुआ। आज उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के फैसलों और रोजगार को लेकर भी युवाओं में आक्रोश बना हुआ है। ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सीटों पर अन्य मुद्दों के बिखराव के कारण चारों पार्टियों में लोकसभा सीटें बराबर-बराबर हिस्से में बंट जाएंगी। यानी कि हर के खाते में 20-20 सीटें आ सकती हैं। यह तो भविष्य के गर्त में है लेकिन यह तो तय है कि भाजपा की चुनावी रणनीति उत्तर प्रदेश में लागू नही हो पाएगी। लोकसभा चुनाव के इतिहास में नजर डाले तो हर चुनाव अपने पिछले चुनाव का रिफ्लेक्शन होता है। आने वाले समय में मुद्दा विकास का होगा या हिंदू-मुस्लिम का, राजनीति के अंतिम खेल जाति और मुस्लिम तुष्टिकरण ध्रुवीकरण के गणित के कारण विकास के मुद्दे हवा में उड़ जाते हैं।

वर्तमान में सत्ता के चार साल बाद भी जनता मोदी सरकार के किए गए वादे से उतनी खुश नजर नहीं आ रही है क्योंकि उनके फैसले एससी-एसटी एक्ट, पेट्रोल की बढ़ती कीमत, सिलेंडर के दाम बढ़ रहे हैं तो वहीं दो करोड़ नौकरी हर साल देने का वादा हवा हवाई हो गया। बेरोजगारी, महंगाई, जाति वर्ग का तुष्टिकरण आदि ऐसे कई मुद्दे हैं जिससे नए वोट बैंक साधने के चक्कर में भाजपा अपना परंपरागत वोट बैंक खो रही है। इस बात की चिंता अंदरखाने में भी हो रही है लेकिन इसे अस्थायी डैमेज मानकर भाजपा एससी-एसटी एक्ट के माध्यम से अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के वोट बैंक को अपनी ओर आकर्षित करने की कवायद की है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो क्या यह कारगर सिद्ध होगा? वहीं इस एवज में ओबीसी और सामान्य वर्ग का वोट फिसलने की नौबत पर है। जिस तरीके से सोशल मीडिया में इन मुद्दों को आईटी सेल द्वारा डायलूट किया जाता है तो इससे पता चलता है कि कहीं ना कहीं डैमेज कंट्रोल करने की कवायद भारतीय जनता पार्टी की ओर से की जा रही है। यह भी गौरतलब है कि इन मुद्दों को अस्थाई मुद्दा मानकर भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी गलती करने जा रही है क्योंकि उसके पारंपरिक वोट बैंक इस बात को लेकर धरना प्रदर्शन भी कर रहे हैं। इधर विपक्ष एकजुट होकर मोदी की लोकप्रियता को कम करना चाहती है और सत्ता पर काबिज होने की कवायद कर रही है लेकिन महागठबंधन की स्थिति नहीं बन पा रही है। सपा, कांग्रेस और बसपा के बीच में चुनाव से पूर्व गठबंधन की कवायद पूरी होती नहीं दिख रही है। ऐसे में भाजपा को लाभ होगा या हानि होगी यह समझना होगा। देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में भाजपा को सबसे अधिक चुनौती सपा से मिल सकती है, ऐसे में अगर कांग्रेस और बसपा उत्तर प्रदेश में गठबंधन करते हैं तो इसका सीधा फायदा भाजपा को ही मिलेगा। अगर गठबंधन नहीं होता है तो इसका फायदा बसपा, सपा और कांग्रेस को मिल सकता है। यानी लोकसभा की सीटों का इन पार्टियों के बीच में बँटवारा हो जाएगा और सभी के खाते में 20-20 सीटें आ सकती हैं। अभी भी यह माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा मजबूत स्थिति में है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि 2014 के चुनाव और उसके बाद विधानसभा चुनाव में युवाओं का एक बड़ा वोटबैंक भाजपा के साथ जुड़ा था। इससे पहले उत्तर प्रदेश में बसपा सरकार को हटाकर यहां 2012 में सपा के साथ युवा वर्ग का वोट अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद पर पहुंचा दिया था। योगी सरकार के कार्यकाल में युवा वर्ग बेरोजगारी, नौकरी की घटती संख्या, शिक्षक भर्ती पर उठते सवाल, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे इस लोकसभा चुनाव पर हावी रहेंगे। जिस कारण से भाजपा को नुकसान हो सकता है।

दूसरा कारण जातिगत समीकरण भी है जो अब बिल्कुल नए सिरे से है। एससी-एसटी एक्ट के कारण अन्य वर्गों की नाराजगी भाजपा के खिलाफ कांग्रेस को लाभ पहुंचा सकती है। ऐसे में उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटों का इन चार दलों में बराबर से बंटवारा के रूप में लोकसभा चुनाव का परिणाम 2019 में मिल सकता है। आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा 2014 में किए गए अपने वादे से अलग विकास के मुद्दों को उठाएगी ही साथ में आतंकियों पर लगाम लगाने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख बढा़ने जैसे मुद्दों पर अपनी जीत के प्रति आश्वस्त है।

अभिषेक कांत पाण्डेय

हिंदी भाषा में परास्नातक, पत्रकारिता में परास्नातक, शिक्षा में स्नातक, डबल बीए (हिंदी संस्कृत राजनीति विज्ञान दर्शनशास्त्र प्राचीन इतिहास एवं अर्थशास्त्र में) । सम्मानित पत्र—पत्रिकाओं में पत्रकारिता का अनुभव एवं राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक विषयों पर लेखन कार्य। कविता, कहानी व समीक्षा लेखन। वर्तमान में न्यू इंडिया प्रहर मैग्जीन में समाचार संपादक।

2 thoughts on “चुनावी समर – आसान नहीं, भाजपा की डगर

  • “सर्वे तो एक छोटा सा हिस्सा है। बाकी लेख में और बहुत से कारण है़ं। 2014 की जो स्थिति कांग्रेस के लिए थी, वही स्थिति आज भाजपा के लिए है। जनता के मन में कई सवाल हैंं। जनता के सवाल इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर दब गया तो परिणाम भाजपा के विरोध में जा सकता है।

  • विजय कुमार सिंघल

    जिस सर्वे के आधार पर आपने यह लेख लिखा है वह फर्जी है. एबीपी चैनल के सभी सर्वे पूर्व में भी एकतरफा और पूरी तरह गलत सिद्ध हुए हैं. ऐसा ही यह है. इसके बाद तीन सर्वे आ चुके हैं, जिनमें तीनों राज्यों में भाजपा की वापसी का अनुमान लगाया गया है. यही सत्य है. विपक्षी दल चाहे चैनलों और अख़बारों में कितना भी गाल बजा लें, पर किसी में कोई दम नहीं है.

Comments are closed.