कविता

मैं वक्त नहीं

मैं वक्त नहीं हूं जो बदल जाऊँगा ,
मैं इंसान हूँ, बस ईंशानियत ही निभाऊंगा।
करता हूँ वही जो ज़मीर कहती है,
खुश हूँ पाकर वो सब जो तकदीर देती है।
ज्यादा की उम्मीद में मै भटकता नही,
थोड़ा पाकर भी दिल अब खटकता नहीं।
सोचता हूँ क्या लेकर आया था
और क्या लेकर जाऊँगा,
ये सब माया मोह का जाल है,
मौहब्बत का पैगाम दे जाऊँगा।
अपने लिए तो सभी जीते है यारो
कभी दूसरों के लिए भी जियो,
बड़े शकून मिलेंगे तुम्हें कभी दूसरों के गम भी पियो।
ये भौतिकता ने ऐसा है कर दिया,
जिंदगी का तो उसने पूरी
केमेस्ट्री ही बदल दिया ।
सुख तो बहुत मिलता है इन फलसफा से ,
पर उसने तो रिश्तों का फिलोसॉफी ही बदल दिया।
आओ मिलकर रिश्ते- नातो को एक नया आयाम दे,
झूठ और मक्कारी को भी अब पूर्णविराम दे।
आदमी ही आदमी के काम आ जाए,
इंसान हर हाल में ईंशानियत को ही निभाए।
मृदुल शरण