हास्य व्यंग्य

मुफ्त में बांटना विकास की ओर बढ़ता एक कदम

किसी जमाने में रेवड़ियां बांटने का चलन रहा होगा, शायद खूब रेवड़ियां बंटती थीं।बांटने वाला भी दिल फरियाद, लेकिन यह बंटती थी अपने -अपने को ही।तब जिनको अपना समझा गया, उनको रेवड़ी मिलती चली गई लेकिन अब जमाना बदल गया है।लोग डायबिटिक होने लगे हैं,ज्यादा मीठा पचा नहीं पा रहे हैं सो रेवड़ी का जमाना गया।वैसे भी रेवड़ी से कहाँ कोई संतुष्ट होने वाला है।आजकल देने को दुख है,दर्द है,तकलीफ़ है,तनाव है।कहते भी हैं कि टेंशन लेने का नहीं, देने का है मामू!तब फिर अपुन को टेंशन किस बात का!
पहले के समय में रेवड़ियां शायद अपनी पॉकेट से बांटी जाती थी लेकिन अब अपनी पॉकेट में हाथ डालने का चलन नहींं है।हाँ,दूसरों की पॉकेट में हाथ डाल सकें या दूसरों की पॉकेट से कुछ निकलवा सकें तो बात बन जाए।अब माना जाने लगा है कि रेवड़ी बांटने से हांसिल क्या होना है!रेवड़ियां वोट उत्पादक सामग्री है भी नहीं।इसकी जगह भण्डारा करना या लंगर डालना ज्यादा कारगर है।तभी तो गली-गली,मोहल्ले-मोहल्ले, सड़क-चौराहे भण्डारे और लंगर से अटे पड़े हैं।भण्डारे करने के अवसर तो नित उत्पन्न होते हैं या फिर अवसर बनाने में कौन सा जेब से टका लगता है।खैर समय ऐसा है कि लोगों को लुभाना पड़ता है, मुद्दों से भटकाना भी पड़ता है। क्रिकेट में भी तो गेंदबाज ललचाती हुई बाल डालकर बल्लेबाज को कैच आउट करवा देता है।इसलिए ललचाना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।सरकार भी खजाना लुटाती है तो क्या गलत करती है! सरकार का खजाना उसका अपना है।जो जनता का है,वह सरकार का है और जो सरकार का है वह जनता का ही तो है।उसे जैसा लुटाया जाना है, लुटाया जा सकता है।टैक्स पेयर भी तो सरकार के अपने ही हैं।सरकार बनाती भी तो जनता ही है फिर प्रश्नचिन्ह कैसा!
जब सपने दिखाये जा सकते हैं ,वायदों की बरसात की जा सकती है, भावनाओं की दरिया बहाई जा सकती है आश्वासन की रोटी खिलाई जा सकती है तब एक रूपये-दो रूपये किलो में गेहूँ-चांवल बांट देना कौन सी बड़ी बात है।चाहे इनकी सरकार हो चाहे उनकी सरकार हो,चाहे इस प्रांत में हो,चाहे उस प्रांत में, लैपटॉप, साईकिल, मोबाइल,साड़ी,चप्पल-जूते मुफ्त में बांटना या उनकी घोषणा कर देना उनके बांये हाथ का खेल है।यह भी विकास की दिशा में बढ़ता एक कदम ही तो है! मुफ्त में टीवी, सिम और स्मार्टफोन मिल जाए तो दुनिया के आधे गम तो वैसे ही दूर हो जाते हैं क्योंकि इनसे करने को कुछ काम मिल जाता है और भजने को सरकार !और फिर कलाली खोलने का पुण्य कार्य पहले ही हो चुका है तब गम कहाँ ठहर सकेगा! यह बांटने की कला दक्षिण से विकसित होते-होते उत्तर,पूर्व और पश्चिम तक विस्तार पा चुकी है।ऐसा नहीं है कि सरकार ही बांटू या फेंकू है,अब तो हरेक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल इस पुण्य कार्य में लगा है, इस आस में कि उसका वोट बैंक खड़ा हो रहा है।
इस सबमें एक बात समझ में आती है कि गरीबों के जीवन में स्थायी बदलाव और रोजगार देना या तो उनके लिए सम्भव नहीं है या फिर यथास्थिति बनाए रखने के चलते उनकी अपनी लेनदेन की आदत से जनता को इस प्रभावी तरीके से सीखाकर जनकल्याण का मार्ग ही तो प्रशस्त हो रहा है।समतामूलक व्यवस्था और व्यवहार का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है!

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009