कविता

कितने रावण मारोगे

 

कदम कदम पर रावण हैं ,
तुम कितने रावण मारोगे
थक जाओगे , कोशिश करके
अंत समय में हारोगे

शिक्षा को व्यापार बनाकर
शिष्यों से जब घात करे
देशद्रोह की चाह लिए कोई
देशप्रेम की बात करे
अपनों का चोला पहने
कैसे इनको पहचानोगे
कदम कदम पर रावण हैं
तुम कितने रावण मारोगे

ढोंग करें बनकर जो साधु
धर्म कलंकित होता है
दुराचार का दानव कोमल
मन पर अंकित होता है
एक सलाखों में पहुँचाओ
फिर से दस को पाओगे
कदम कदम पर रावण हैं
तुम कितने रावण मारोगे

झूठ फरेब और मक्कारी से
भरा ये वादा करते हैं
शोषित , पिछड़ों की लाशों पर
राजनीति खूब करते हैं
चाहे जो सरकार बना लो
सबको एक ही पाओगे
कदम कदम पर रावण हैं
तुम कितने रावण मारोगे

रक्षक वेष में भक्षक भी हैं
कैसे इनको पहचानें
किट पतंगे सम इंसां हैं
आकाओं को ही जानें
वर्दी को करते जो कलंकित
इनसे पार न पाओगे
कदम कदम पर रावण हैं
तुम कितने रावण मारोगे

घर की लक्ष्मी छोड़कर जो
दूजों पर स्नेह लुटाते हैं
घर की मुर्गी साग बराबर
गर्व से ये फरमाते हैं
दिल में कुत्सित भाव हैं इनके
सदाचार है होठों पर
इन्हीं नराधमों की खातिर
कुछ बहनें बैठी कोठों पर
उन बहनों की आह से
गर जो समझो बच भी जाओगे
कदम कदम पर रावण हैं
तुम कितने रावण मारोगे

दुराचारी और व्यभिचारी का
भी तो बजता डंका है
बहन बेटियाँ इनकी भी हैं
इसमें पक्का शंका है
मजबूरी का लाभ उठाते
इनको ताड़ न पाओगे
कदम कदम पर रावण हैं
तुम कितने रावण मारोगे

मारना है तो मारो खुद के
अंदर छिपी बुराई को
संस्कार , संस्कृति बढ़ाओ
तत्पर रहो भलाई को
दया ,त्याग और करुणा का जब
तुम परचम लहराओगे
दाल गलेगी ना रावण की
एक भी ना तुम पाओगे

नहीं तो ……
कदम कदम पर रावण हैं
तुम कितने रावण मारोगे

स्वरचित :

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।