कहानी

जानकी मौसी

 

” जानकी मौसी ”

जानकी मौसी कौशल्या के घर का सारा काम- काज संभालती थी। कौशल्या को वह ‘शालू की मम्मी’ ही कहा करती थी। कौशल्या की बेटी का नाम था शालू। पूरा गांव उसे जानकी मौसी करके बुलाया करता था। गांव भर की मौसी थी वह। अक्सर कौशल्या से अपने पति के बारे में शिकायत करती रहती थी कि….”गोपाल के पापा दिन भर पंचायती करता रहता है गांव में, और ताश पीटता रहता है। इधर की बातें उधर करना और उधर की बातें इधर करने मैं तो वह बहुत माहिर है।पर…. जब भूख लगती है घर आ जाता है। उसे वक्त पर खाना चाहिए, तनिक भी देर हो जाए तो चिल्ला चोट करता रहता है। मुझसे पैसे मांगता है शराब पीने के लिए। ना दो तो मारपीट करने पर उतारू हो जाता है।”…गोपाल जानकी मौसी का बेटा था।
भवानी दास गांव भर में इस बात के लिए बदनाम था कि वह सबसे बड़ा निकम्मा है। उसकी दो बेटियां तथा एक बेटा था जिसे जानकी मौसी ही पाल रही थी। बहुत मेहनती थी वह इसीलिए कौशल्या की कृपा दृष्टि सदैव उस पर बनी रहती थी। जब कभी भी रुपए- पैसे की जरूरत पड़ती तो आकर कहती थी….”शालू की मम्मी थोड़े से रुपए उधार दे दो, अगले महीने की पगार में से काट लेना।”
कौशल्या को बड़ी दया आती थी जानकी मौसी को देख कर। कभी भूखे पेट काम पर आ जाती थी तो कभी अपने पति से पिट कर आ जाती थी। कौशल्या से उसका दुख देखा ना जाता, वह सांत्वना देती और भरपेट खाना भी खिला देती थी।
बड़ी बेटी जब 13 साल की हुई तब भवानी दास ने उसकी शादी एक 40 साल के आदमी से तय कर दिया। उसके दो बच्चे थे पहली बीवी से। बेटी के बदले उसने खूब सारे रुपए ऐंठ लिए थे। यह बात जानकी मौसी को जब पता चली तो वह दौड़के कौशल्या के पास आई और रोते रोते कहा…. “शालू की मम्मी, अब मैं क्या करूं। मेरी बेटी कितनी छोटी है, उसकी शादी एक 40 साल के बुड्ढे के साथ तय कर दी पैसे के बदले में।”
कौशल्या क्या करती, बुलाकर भवानी दास को बहुत समझाया पर वह टस से मस ना हुआ और बेटी की शादी कर दी। गांव भर में उसकी बड़ी बदनामी हुई पर उसे किसी बात की कोई चिंता न थी। चिंता थी तो बस शराब पीने की।
इसके तीन-चार साल बाद उसने छोटी बेटी की शादी भी एक ऐसे घर में कर दिया जहां पर वह बिल्कुल सुखी नहीं थी। जानकी मौसी की तो एक ना चलती थी। वह तो बस पैसे कमाने की और बच्चा पैदा करने की मशीन थी।
एक दिन जानकी मौसी सुबह सुबह रोते-रोते कौशल्या के घर आई और उससे कहने लगी… “शालू की मम्मी मैं तो बर्बाद हो गई, मेरी छोटी बेटी ने आत्महत्या कर ली।”… और वह छाती पीट पीट के रोने लगी।
कौशल्या का तो बस एक ही काम था कि वह उसे सांत्वना देती और उसके आंसू पोंछती रहती थी। और… करती भी क्या, बड़ी अच्छी और भोली थी बेचारी। हर बुरे वक्त में बहुत काम आती थी।
कौशल्या तथा गांव वालों ने भी भवानी दास से कहा कि थाने में रिपोर्ट लिखवा दो। हम सब तुम्हारे साथ हैं। तुम्हारी बेटी को ससुराल वालों ने सता सता कर मार डाला है। नहीं तो तुम्हारी बेटी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह फांसी लगाकर आत्महत्या कर ले। पर वह भला किसी की सुनने वाला था? वह बेटी के ससुराल गया बेटी की अर्थी को कंधा देने के लिए, तब उन लोगों ने रुपए पैसे देकर भवानी दास का मुंह बंद कर दिया। गांव में आकर वह संत बन रहा था। सबसे कहने लगा कि…”अब जब बेटी ही नहीं रही तो थाने में रिपोर्ट लिखवा कर क्या करूंगा? उससे मेरी बेटी वापस तो नहीं आ जाएगी?”

जानकी मौसी इस घटना के बाद बहुत दुखी थी और थोड़ी सी सख्त भी हो गई थी। उसने ठान लिया था अब जो भी हो बेटा गोपाल को वह पढ़ा लिखा कर एक अच्छा इंसान बनाएगी। उसे छोटी उम्र में काम पर नहीं भेजेगी चाहे उसके लिए उसके पापा जितनी भी अत्याचार करना हो करें। दोनों नाबालिग बेटियों की शादी तो उसके पापा ने कर ही दी थी।
और… जानकी मौसी ने वही किया। बेटे को पढ़ा लिखा कर इस लायक बनाया कि वह गांव की डिस्पेंसरी में कंपाउंडर बन गया। एक अच्छी पढ़ी-लिखी लड़की देख कर उसकी शादी कर दी जो कि गांव की आंगनबाड़ी में काम करती थी।पर… जानकी मौसी अभी भी कौशल्या के यहां काम करती थी क्योंकि पति का खर्चा तो उसे उठाना ही था।
गोपाल की दो बेटियां थी। जिन्हें वह पढ़ा लिखा कर अफसर बनाना चाहता था। दोनों को गोपाल ने स्कूली शिक्षा के पश्चात शहर में भेज दिया था कॉलेज की पढ़ाई के लिए। दोनों बेटियां बहुत होनहार थी। सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था कि एक दिन अचानक समाचार मिला कि जानकी मौसी ने गले में फंदा डालकर आत्महत्या कर ली है। सुनकर कौशल्या और गांव वाले मौसी के घर की ओर दौड़ पड़े। जब तक कौशल्या तथा गांव वाले वहां पहुंचें तब तक जानकी मौसी इस दुनिया से कूच कर गई थी। दुख के साथ सबने राहत की सांस भी ली यह सोच कर कि जानकी मौसी को कम से कम ऊपर जाकर शांति तो मिलेगी?

कौशल्या ने गांव वालों को कानाफूसी करते हुए सुना था कि मौसी को भवानी दास ने शराब के नशे में पीट-पीटकर मार डाला है। उस समय घर में कोई नहीं था। मारकर फिर पेड़ से लटका दिया था। गोपाल समझ गया था सारा माजरा, उसने चुप रहना ही अपने परिवार के लिए उचित समझा।
कौशल्या का तो जैसे दाहिना हाथ ही टूट गया था। जानकी मौसी के बिना वह न तो दो कदम चल पाती थी ना ही कुछ सोच पाती थी। बहुत लगाव हो गया था कौशल्या का जानकी मौसी से।
जानकी मौसी के गुजर जाने के बाद गोपाल में एक परिवर्तन जरूर आया। उसने अपने पापा से स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि….”अब इस घर में जो मैं कहूंगा वही होगा। कोई शराब नहीं पिएगा और न ही यहां कोई गाली गलौज ही करेगा। चुपचाप अच्छे से रह सकते हो तो रहो वरना अपना रास्ता स्वयं ढूंढ लो। मैं अपने दोनों बेटियों की जिंदगी अब अपनी बहनों तथा अपनी मां के जैसे बर्बाद होने देना नहीं चाहता।”…. गोपाल की आंखों से आंसू बहे रहे थे।
मरता क्या नहीं करता…. भवानी दास अपना सिर झुकाए चुपचाप बैठा रहा……।
आज…. कौशल्या बहुत खुश थी क्योंकि एक रावण का वध जो हो गया था….।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

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*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com

One thought on “जानकी मौसी

  • विजय कुमार सिंघल

    मार्मिक कहानी !

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