कविता

कविता : तेरे खेल निराले रे मन…

तेरे खेल निराले रे मन!
तेरे खेल निराले।

रेत बिछा कर उस पर तू,
कागज़ के महल बनाए,
रंग बिरंगी बातों को,
तू सोच सोच इतराए,
कोई नहीं आएगा पर,
तू पथ में दीपक बाले।
दूर चाँद से ज्यादा हैं,
क्यों ऐसे सपने पाले।
तेरे खेल निराले रे मन!
तेरे खेल निराले।

कोई चाहे साथ तेरा
पर दूर दूर तू भागे,
पहुँच से बाहर जो तेरी
तू साथ उसी का मांगे,
जब जी तेरा चाहे तू,
भीतर से कुण्डी डाले।
और कभी चल पड़ता है,
तू खोल के सारे ताले।
तेरे खेल निराले रे मन!
तेरे खेल निराले।

चलने को है ज़मी बहुत,
तुझको आकाश पसन्द है,
ख्वाहिश सपने और अपने,
तेरे भीतर जितने बन्द हैं,
काहे इनको पाले तू,
मोती के दाने डाले।
इक एक करके बिखरेंगे,
कांच के हैं सब प्याले।
तेरे खेल निराले रे मन!
तेरे खेल निराले।

*डॉ. मीनाक्षी शर्मा

सहायक अध्यापिका जन्म तिथि- 11/07/1975 साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद फोन नं -9716006178 विधा- कविता,गीत, ग़ज़लें, बाल कथा, लघुकथा