लघुकथा

थाली में चाँद

इंद्रधनुषी फूलों की सजावट और सुगंध हर और छाई थी। शर्मीले पुष्पों से बनी मालाएं वातावरण को मनमोहक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थीं। बाहर के कमरे में ढोलक और गीतों की मिश्रित ध्वनि गूँज रही थी। परन्तु इस विशेष अवसर की नायिका अधीर सी छत पर टहल रही थी।

‘कहीं ग़लती तो नहीं कर दी मैसेज कर के… नहीं बात स्पष्ट तो करनी ही होगी। कल सगाई है और चार दिन बाद विवाह… और जीवन भर का ये सम्बन्ध संदेह के आधार पर … कभी नहीं…’ सांवरी विचारों के जिस बवंडर में बुरी तरह घिर गई थी वहां से उसे सिर्फ चंद्रकांत ही बाहर निकाल सकते थे।

सांवरी की शंका निराधार भी नहीं थी। अनुपम रंग रूप और गुणों की स्वामिनी उसकी ममेरी बहन सिम्मी को देखने आए लड़के चंद्रकांत ने जब अचानक ही सिम्मी के स्थान पर… अत्यंत साधारण रंगरूप की सांवरी से विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो सभी को आश्चर्य होना स्वाभाविक था। सभी बड़ो ने आनन फानन में, सम्पन्न घर के आकर्षक लड़के को हाथ से न जाने देने का निर्णय लिया। सिम्मी समेत घर के सभी लोग खुश थे पर सांवरी …. बस उसे ही कुछ समझ नहीं आ रहा था। कहाँ अपने नाम को सार्थक करते सर्वगुण सम्पन्न चंद्रकांत और कहाँ सांवरी … असंख्य क्यों में से किसी एक भी क्यों का जवाब ढूंढे नही मिल रहा था उसे। विवाह का समय निकट आते आते संदेह के बादल कुछ ज्यादा ही गहराते जा रहे थे। तभी आज उसने चंद्रकांत को मैसेज भेजा और प्रश्नों की बौछार करके बात को स्पष्ट करने की ठान ली। पर अभी तक उनकी तरफ से कोई जवाब क्यों … ?

अचानक आये फोन ने सांवरी की तन्द्रा भंग की।

‘सांवरी … सोचा था तुम्हे कब से जानता हूँ आराम से बताऊंगा पर … तुमने जब पूछ ही डाला तो फिर आज ही सही। तुम्हे कब से पसन्द करता हूँ याद नहीं … शायद उस दिन जब तुम पहली बार कॉलेज आईं …या उस दिन जब सीनियर्स की रैगिंग के खिलाफ तुमने आवाज़ उठाई। या जब तुमने हम लोगों की विदाई समारोह में गीत गाया। पता नहीं क्यों पर तुम्हारी सादगी के आगे मुझे हमेशा ही सबकुछ फीका लगा। ये सब तुम्हारे लिए अचानक था पर मेरे लिए तो ये सिलसिला पाँच वर्ष पुराना है। अब जब तुम दोबारा मिलीं तो लगा भाग्य आज़मा कर देखता हूँ मेरे माता पिता को कोई एतराज नहीं था इसीलिए यह प्रस्ताव तुम्हारे समक्ष रख दिया। सांवरी आज हृदय की भाषा को पहली बार कंठ में उतारा है, विश्वास कर सको तो कर लेना।’

फोन कट चुका था, हृदय से संदेह रुपी बादल छंट चुके थे और भीतर असीम शांति छा चुकी थी। अपने भाग्य पर इतराने को जी चाह रहा था सांवरी का। ऊपर आकाश की छटा भी निराली थी … छोटे छोटे तारों की बड़ी सी बारात के बीच खिला खिला चाँद … और उसके ठीक नीचे एक बादल का टुकड़ा … ऐसा लग रहा था मानो बादल की थाली में सजे चंद्र ने खुद को बड़ी सरलता से मुस्कुराते हुए परोस दिया था रात्रि को रिझाने के लिए। सांवरी मुस्कुरा उठी… अब उसे भी भाने लगा था बादलों की थाली में मुस्कुराता हुआ चाँद।

*डॉ. मीनाक्षी शर्मा

सहायक अध्यापिका जन्म तिथि- 11/07/1975 साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद फोन नं -9716006178 विधा- कविता,गीत, ग़ज़लें, बाल कथा, लघुकथा