धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मनुष्य का मानव और दानव बनना उसके अपने हाथों में हैं

ओ३म्

ससार में हम अनेक प्राणियों को देखते हैं। दो पैर और दो हाथ वाला प्राणी जो भूमि पर सीधा खड़ा होकर व सिर ऊंचा उठाकर चलता है, जिसके पास बुद्धि है और जो सोच विचार कर अपने काम करता है, उसे मनुष्य कहते हैं। मनुष्य की विशेषता यह है कि उसके पास एक आत्मा और बुद्धि है। मनुष्य का अपना एक सूक्ष्म शरीर होता है जिसमें पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्म इन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार आदि उपकरण होते हैं। मनुष्य योनि में बुद्धि सोच विचार कर उचित अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य, अच्छे-बुरे का विचार कर अपने हित-अहित के अनुसार कार्य करती है। मनुष्य अच्छे काम करके श्रेष्ठ व बुरे काम करके हेय बनता है। बुरे गुणों वाले मनुष्यों को कोई पसन्द नहीं करता। प्रश्न है कि क्या बुरा मनुष्य भी अच्छा बन सकता है तो इसका उत्तर हमें हां में मिलता है। बुरा मनुष्य भी चाहे तो वह सत्याचरण अर्थात् धर्म को धारण कर देव कोटि का अच्छा मनुष्य बन सकता है। इसके लिये उसके माता-पिता, आचार्य आदि व उसे स्वयं क्या करना होता है यह विचारणीय है।

मनुष्य के पास बुद्धि है जिसका विषय ज्ञान होता है। ज्ञान प्राप्ति के लिये योग्य व श्रेष्ठ गुरुओं, धार्मिक ज्ञानी माता-पिताओ, सगे सम्बन्धियों व श्रेष्ठ साहित्य की आवश्यकता होती है। संगति का भी मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है। अतः अच्छा मनुष्य बनने के लिये मनुष्य को अच्छे लोगों की ही संगति करनी होती है। यदि वह अपनी संगति पर ध्यान नहीं देंगे और बुरे व्यक्तियों की संगति करेंगे तो निश्चय ही वह अच्छे नहीं बन सकते। उनमें बुरे लोगों के संग से बुराईयां अवश्य ही आयेंगी। मनुष्य को बुराईयों से बचाने के लिये माता-पिता का धार्मिक विद्वान होना चाहिये। धार्मिक विद्वान से अभिप्राय है कि वह किसी मत-मतान्तर को मानने वाला न होकर सत्य मान्यताओं, सत्य सिद्धान्तों और सदाचारी व धार्मिक विद्वानों के मार्ग पर चलने वाले हों। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानते हों और ईश्वरोपासना आदि कर्तव्यों का निर्वाह करते हों। धर्म का प्रमुख ग्रन्थ केवल वेद है और वेद के अनुकूल ग्रन्थों की शिक्षाओं को ही हमें जानना व उनका आचरण करना चाहिये। संसार व देश में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। उन्हें धर्म कदापि नहीं कह सकते। धर्म उसे कहते हैं जिसमें शत-प्रतिशत सत्य सत्य मान्यताओं और सिद्धान्तों का विधान हो। किसी भी असत्य व मिथ्या मान्यता का विधान धर्म में नहीं होता है। ऐसा धर्म केवल वैदिक धर्म ही है। हम जब मत-मतान्तरों पर दृष्टि डालते हैं तो मनुष्यों द्वारा अस्तित्व में आये सभी मत-मतान्तरों में अवैदिक, मिथ्या व असत्य मान्यतायें एवं परम्पराओं की भरमार देखते हैं।

महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में वैदिक मत की मान्यताओं व सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला है। वैदिक मत की परीक्षा करने पर परिणाम निकला है कि इसकी कोई मान्यता असत्य नहीं है। इस कारण वेद की सभी मान्यतायें अखण्डनीय एवं सत्य हैं। यह भी जान लेना चाहिये कि वैदिक मत किसी मनुष्य, ईश्वर पुत्र व ईश्वर के सन्देश वाहक द्वारा प्रवर्तित नहीं है अपितु वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में सृष्टिकर्ता ईश्वर ने ही दिया था। वेद में सभी सत्य विद्यायें बीज रूप वा संक्षिप्त रूप में हैं। इसके साथ ही ईश्वर व जीवात्मा की वेदों में विस्तार से चर्चा मिलती है। वेदों की कोई मान्यतता असत्य, सृष्टिक्रम के विरुद्ध, सत्य ज्ञान के विपरीत व युक्ति व तर्क के विपरीत नहीं है। इसके विपरीत कोई मत यह दावा नहीं करते कि उनके धर्म व मत-ग्रन्थ की पुस्तकें सब सत्य विद्याओं से युक्त हैं। सभी मतों में अविद्या व अज्ञान की अनेक बातें विद्यमान हैं। अतः अधूरे ज्ञान, मिथ्या मान्यताओं व परम्पराओं के ग्रन्थ होने से मत-मतान्तरों के द्वारा मनुष्य का कल्याण नहीं होता। मनुष्य को मांसाहार, अण्डों का सेवन, मछली का सेवन, ध्रूमपान व तम्बाकू का सेवन, मदिरा पान व नशा आदि कदापि नहीं करने चाहियें। यह पाप कर्म हैं जिसका ईश्वर मनुष्य को दुःख के रूप में दण्ड देता है। देश में ऐसे अनेक मत हैं जहां इन बातों को बुरा नहीं माना जाता अपितु इनकी प्रेरणा भी कई मतों में की गई है। इसका कारण अविद्या है। अतः मत-मतान्तरों की मान्यताओं का आचरण करने से मनुष्य साधारण मनुष्य ही बन कर रह जाता है। ऐसा मनुष्य अनेक अधर्म व पाप के काम भी कर सकता है व करता है जिससे धार्मिक व सज्जन मनुष्यों को कष्ट होता है। ऐसे पापमय लोगों के पाप व दुष्कृत्यों को कुचलने में लिये कठोर नियम व कानून होने चाहियें परन्तु ऐसे लोगों को व्यवस्था से अपने पापों का उचित व कठोर दण्ड न मिलने से मानव समाज श्रेष्ठ समाज नहीं बन पा रहा है। आज के समाज में आर्थिक व  चारित्रिक भ्रष्टाचार एवं परिग्रह की भावना अधिक पाई जाती है। लोगों में दुःखी व निर्धन तथा दुर्बलों के प्रति सेवा व सहायता की भावना के दर्शन कम ही होते हैं। समाज में निर्बलों का शोषण और अन्याय देखने को मिलता है। अतः यही कहा जा सकता है कि समाज में देव कोटि के अच्छे मनुष्य कम ही हैं। अच्छा मनुष्य कैसे बन सकता है, इस पर विचार करते हैं।

मनुष्य सद्गुणों व संस्कारों से युक्त हो इसके लिये वैदिक सत्य धर्म में 16 संस्कारों का विधान किया गया है। यह सोलह संस्कार गर्भाधान से आरम्भ होकर मृत्यु होने पर अन्त्येष्टि संस्कार के रूप में सम्पन्न होते हैं। सन्तान के प्रसव से पूर्व वैदिक परिवारों के माता-पिताओं को श्रेष्ठ सन्तान की प्राप्ति के लिये अनेक नियमों व व्रतों का पालन करना होता है। उन्हें सत्य नियमों का पालन करते हुए संयम व पवित्रता से युक्त जीवन व्यतीत करना होता है। उन्हें अपने मन को श्रेष्ठ धार्मिक विचारों से युक्त रखना होता है। प्रातः व सायं ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, मनन, स्वाध्याय, अग्निहोत्र, माता-पिता व आचार्यों की सेवा आदि करनी होती है। शुद्ध व पवित्र भोजन करना होता है। घर व आस पास का वातावरण भी शुद्ध व पवित्र तथा उपद्रव रहित होना चाहिये। गर्भस्थ सन्तान इस अवधि में माता-पिता के जीवन की बातों व गुणों को ग्रहण करता है और उसके अनुरूप ही वह बनता है। जन्म के बाद भी बालक को ज्ञान व सदाचरण की शिक्षा माता-पिता व आचार्य आदि दिया करते हैं। बुरे कार्यों के बुरे परिणामों से भी उसे अवगत कराया जाता है। वैदिक शिक्षा गुरुकुल में धार्मिक, संयमी, निर्लोभी, शिष्यों को माता-पिता के समान पालन करने वाले, महत्वाकांक्षा से रहित, सच्चरित्र विद्वान आचार्यों द्वारा दी जाती थी। आजकल ऐसे आचार्यों का स्कूल व कालेजों सहित सर्वत्र अभाव है। वातावरण का भी ऐसा प्रभाव है कि आजकल के बच्चे आध्यात्म व वेद प्रचार के मार्ग पर न चलकर धनोपार्जन व सरकारी नौकरी आदि को ही प्राथमिकता देते हैं। इससे समाज में असन्तुलन बढ़ रहा है। देश भर का समस्त धन कुछ हजार व लाख लोगों की जेबों व तिजोरियों की ही शोभा बढ़ाता है जिससे सामाजिक असन्तुलन एवं अनेक समस्यायें उत्पन्न होती हैं। देश के बाह्य शत्रु भी नागरिकों को प्रलोभन देकर व अन्य प्रकार से उन्हें अपने पक्ष में करके देश में अस्थिरता उत्पन्न करते रहते हैं। देश के बहुत से प्रभावशाली महत्वांकाक्षी लोग भी ऐसे देश विरोधी कार्यों की उपेक्षा करते हैं और शासक दल के अच्छे कार्यों की भी आलोचना करने के साथ उनमें बाधायें खड़ी करते हैं। इन कारणों से भी समाज में अच्छे चरित्रचवान् लोगों की संख्या जो 90 से 95 प्रतिशत होनी चाहिये वह अति न्यून होती है।

वेद और वैदिक साहित्य मनुष्य को देव कोटि का देवता व महापुरुष बनाता है। सन्ध्या व अग्निहोत्र तथा पितृ यज्ञ आदि से भी मनुष्य सन्मार्गगामी होकर देव बनता है। योग से भी वही लाभ होते हैं जो वैदिक सन्ध्या से होते हैं। आसन योग का एक अंग है परन्तु बहुत से लोग आसनों को ही योग मान लेते हैं। योग तो ध्यान व समाधि को कहते हैं। यदि आसन कर हम ध्यान व समाधि की ओर नहीं बढ़ते तो योग से अधिक लाभ नहीं होता। अतः मनुष्य को वैदिक शिक्षा और संस्कार देकर व सत्पुरुषों की संगति व आर्यसमाज के सत्संगों के माध्यम से साधारण मनुष्यों को देव कोटि का मनुष्य बनाया जा सकता है। जो मनुष्य सन्ध्या, योग, अग्निहोत्र, वेद आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय से दूर होगा वह अपने जीवन व चरित्र की भली प्रकार से रक्षा नहीं कर सकता। वैदिक मान्यता के अनुसार एक साधारण व अपराधी कोटि का मनुष्य भी वैदिक धर्म की शरण में आकर देवता बन सकता है। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण हैं। आचार्य चाणक्य ने अपने योग्यता, बुद्धि, ज्ञान व चरित्र बल से चन्द्रगुप्त मौर्य को आदर्श व शक्तिशाली राजा महाराज विक्रमादित्य बना दिया था। गुरु विरजानन्द ने स्वामी दयानन्द को ऋषि दयानन्द तथा ऋषि दयानन्द और उनके साहित्य ने स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी महात्मा हंसराज और स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि का निर्माण किया। आर्यसमाज की विचारधारा के सम्पर्क में आकर भी अनेक चोर व डाकू तथा भ्रष्ट पटवारी आदि भी दुष्कर्मों का त्याग कर आर्य व देवता बने हैं। अतः श्रेष्ठ मनुष्य बनने तथा अपने इहलोक व परलोक को सुधारने के लिये सभी मनुष्यों को वेद और आर्यसमाज को अपनाना चाहिये। इनकी अच्छी शिक्षा व संस्कारों से मनुष्य का मन व बुद्धि शुद्ध होकर व सभी बुराईयों के त्याग से वह सच्चा व श्रेष्ठ मानव अथवा देवता बन सकता है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य