गीत
रश्मि-रथ की करके सवारी
तुम आईं हिय-द्वार सुकुमारी
श्वासों के आरोह-अवरोह से
आहट होती प्रतिध्वनित तुम्हारी
अथाह व्योम-से उर में जैसे
दिव्य नूपुर खनक रहे हैं
इस मादकता की धारा में
सारे सुर-नर भटक रहे हैं
प्रत्येक सुमन से तेरी ही
प्रतिबिंबित होती है छवि न्यारी
श्वासों के आरोह-अवरोह से
आहट होती प्रतिध्वनित तुम्हारी
तू अमित, स्निग्ध, निर्धूम शिखा सी
अंतर में आलोक भरे
निश्छल, निर्मल मुस्कान तेरी
ज्यों पुष्पों से मकरंद झरे
मेनका, उर्वशी, रंभा सी
तू सौंदर्य-प्रतिमा मनोहारी
श्वासों के आरोह-अवरोह से
आहट होती प्रतिध्वनित तुम्हारी
तेरी छवि को मेरे हृदय ने
किया कुछ ऐसे आत्मसात
सजल जलद आच्छादित कर दें
जैसे प्रकृति को अकस्मात
तुम स्वयं ही देखो पल भर में
हो गई प्रफुल्लित सृष्टि सारी
श्वासों के आरोह-अवरोह से
आहट होती प्रतिध्वनित तुम्हारी
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।