जिंदगी
भूल गया जो अपना पथ
फिर मंजिल का है भान कहाँ ।
काँटों पर चलकर ही तो
मिल पाता है अंजाम यहाँ ।
भूल गया जो दुख को अपने ,
सुख का है आभास कहाँ ,
याद रखना अतीत को तुम,
दुर्गम नहीं फिर मंजिल यहाँ ।
चार दिनों का लाड़ यहाँ ,
जीवन भर की कटुता है ।
नियम पुराना सदियों से ,
सुख के हैं सब साथी यहाँ ।
बैशाखी पर औरों की क्यों,
करता ऐ दिल भरोसा यहाँ।
मंजिलों पर चलने के लिए ,
सिर्फ जरूरत हौसलों की यहाँ ।
भूलना है तो भूल जा ऐ दिल ,
अपनों की अहसान फरामोशियाँ ।
सच्चा साथी ईश्वर है फिर ,
क्यों समझता खुद को अकेला यहां ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़