धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

स्वाध्याय करने से ज्ञान प्राप्ति सहित आत्मिक व सामाजिक उन्नति

ओ३म्

मनुष्य की आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी एवं अमर है। एकदेशी होने से यह अल्पज्ञ है। हमें नहीं पता कि पूर्वजन्म में हम मनुष्य ही थे या किसी अन्य योनि में थे। इस जन्म में हमें पूर्वजन्म की किसी बात की याद नहीं है। मनुष्य का स्वभाव पुरानी बातों को भूलने का है। दो जन्मों के बीच में एक मृत्यु आती है जिससे हमारा पूर्वजन्म का शरीर नष्ट हो जाता है। अतः पूर्वजन्म व पुरानी स्मृतियों के विस्मृत होने के अनेक कारण हैं। बचपन में हमें माता-पिता ने भाषा सिखाई और बोलना सिखाया। आज हम जो भी जानते हैं वह सब हमने इसी जन्म में सीखा है। माता-पिता के अतिरिक्त हमारे गुरुजन व पुस्तकें हमारे ज्ञान का साधन हैं। जो मनुष्य जितना अधिक ज्ञानवान होता है वह समाज में उतना ही आदर सत्कार पाता है। हमें जो ज्ञान है वह हमारी आत्मा और हमारे मन, मस्तिष्क और बुद्धि की क्षमता तथा हमारी आवश्यकताओं से काफी कम है। ज्ञान की कमी से हमें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। यदि हम अपने जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग करें तो हम अपने जीवन को काफी अधिक सुधार सकते व उसे ज्ञान व कर्म की दृष्टि अधिक उपयोगी एवं महनीय बना सकते हैं। हम प्रयत्न करें तो एक अतिरिक्त भाषा भी सीख सकते हैं और पुस्तकों के द्वारा धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, इतिहास सहित ज्ञान व विज्ञान को भी कहीं अधिक जान सकते हैं। यह ज्ञान हमारे इस जन्म सहित पुनर्जन्म वा परजन्म में भी उचोगी होता है। अतः हमें स्वाध्याय के महत्व पर विचार करना चाहिये और अपने जीवन को स्वाध्याय से जोड़कर अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर जीवन को अधिक उपयोगी एवं सफल बनाना चाहिये।

संसार में सबसे पुरानी पुस्तक वेद हैं। वेद चार हैं जिनके नाम है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेद ज्ञान व विज्ञान को कहते हैं। चार वेद ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तकें है जो सर्वव्यापक ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को प्रदान किये थे। वेद से हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप, उसकी उपासना, आत्मा के स्वरूप, मनुष्य के कर्तव्य व अकर्तव्यों सहित अनेक विद्याओं का ज्ञान होता है। यदि ईश्वर व आत्मा की बात करें तो आज का मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा के सत्यज्ञान से प्रायः अपरिचित है। उसे अपने कर्तव्यों का भी ज्ञान नहीं है। भोजन कैसा हो जिससे शरीर निरोग रहे और शारीरिक बल सहित आयु की वृद्धि हो, इससे भी अधिकांश लोग अपरिचित हैं। मनुष्यों में अनेक प्रकार की शंकायें होती हैं जिनके सत्य व सन्तोषजनक उत्तर उसे नहीं मिलते। अतः उसे ऐसे ग्रन्थ को प्राप्त कर उसका अध्ययन करना चाहिये जिससे उसकी सभी शंकाओं का निराकरण हो सके। ऐसी एक ही प्रमुख पुस्तक है जिसका नाम सत्यार्थप्रकाश’ है। इस ग्रन्थ के लेखक चार वेदों एवं सम्पूर्ण वैदिक साहित्य के अपूर्व पूर्ण विद्वान थे। वह सच्चे योगी भी थे और उन्होंने ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार भी किया था। योग की अन्तिम सीढ़ी समाधि होती है जिसमें योगी ईश्वर साक्षात्कार करता है। समाधि में योगी को संसार विषयक सभी प्रकार का सत्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है। वह जो जानना चाहता वह ईश्वर की कृपा से उसे ज्ञात होता है। यदि वह अपने पूर्वजन्मों के बारे भी जानना चाहे तो वह भी जान सकता है। इसके आतिरिक्त ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि के अनेक रहस्यों को जानने में वह सफल होता है।

उपर्युक्त सभी विशेषताओं से ऋषि दयानन्द जी युक्त थे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में मनुष्य जीवन में उठने वाली प्रायः सभी शंकाओं के उत्तर युक्ति, तर्क व प्रमाणों के साथ दिये हैं। कई ऐसे तथ्य भी सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से प्राप्त होते हैं जिन्हें वर्तमान के वैज्ञानिक भी जानते नहीं हैं। ईश्वर है, उसी ने सृष्टि की उत्पत्ति जीवों के भोग और अपवर्ग के लिये की है। ईश्वर में सृष्टि उत्पन्न करने की अनादि व नित्य सामर्थ्य है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। जीवात्मा का लक्ष्य समाधि को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार करने सहित मोक्ष को प्राप्त करना है। मोक्ष आनन्द की अधिकतम वा पूर्ण अवस्था को कहते हैं। मोक्ष प्राप्त कर जीवात्मा 31 नील वर्षों के लिये जन्म-मरण के बन्धों वा दुःखों से छूट जाता है। ऐसी अनेक बातें हैं जिनका सत्यार्थप्रकाश में युक्ति व तर्क से समाधान किया गया है। स्वामी दयानन्द जी का ऋग्वेद का आंशिक संस्कृत-हिन्दी भाष्य, यजुर्वेद के संस्कृत-हिन्दी भाष्य सहित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि तथा आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ पठनीय हैं। इनके अध्ययन से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती है। इसके साथ ही सभी मनुष्यों को दर्शन एवं उपनिषदों सहित मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत का भी अध्ययन करना चाहिये। इस अध्ययन से मनुष्य ज्ञान की ऊंचाईयां को प्राप्त करता है जिससे उसका व्यक्तित्व उन्नत होता है। स्वाध्याय से हमें न केवल अध्यात्म व अन्य विषयों का यथार्थ ज्ञान अपितु आर्यों के सत्य इतिहास का ज्ञान भी होता है। भारत देश के सभी नागरिक वा देशवासी वेद के ऋषियों, विद्वानों व आर्यों की सन्तानें हैं। यह बात प्रायः सभी भूले हुए हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से ऐसे सभी तथ्यों का ज्ञान हो जाता है।

मनुष्य जीवन के कर्तव्यों में ईश्वर व माता-पिता का कृतज्ञ होना व उनकी भक्ति व आज्ञा पालन करना मुख्य कर्तव्य होता है। सृष्टि को स्वच्छ रखने व दुर्गन्ध का नाश कर अपने घरों की वायु को शुद्ध रखने के लिये प्रतिदिन घर में वायु-जल शोधक अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये। यह वैदिक संस्कृति की प्रमुख देन है और संस्कृति का अंग भी है। इससे वायु की शुद्धि होकर रोगों से रक्षा, रोगों का शमन, स्वास्थ्य में सुधार व रोग निवृत्ति आदि अनेक लाभ होते हैं। ईश्वर का सहाय भी मिलता है। उपासना की विधि का ज्ञान स्वाध्याय से होता है जिसको करके मनुष्य मोक्ष के मार्ग पर बढ़ता है जिससे उसके परजन्म में उन्नति व मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

स्वाध्याय के विषय में शास्त्रों में बताया गया है कि स्वर्ग व सुख चाहने वालों को यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ से स्वर्ग वा सुख की प्राप्ति होती है। एक कथा ऐसी भी आती है कि जिसमें कहा गया है कि स्वाध्याय से वह लाभ होता है कि जो लाभ पूरी धरती को स्वर्ण व रत्नों आदि से ढक कर दान कर देने वालों को भी प्राप्त नहीं होता। स्वाध्याय से मनुष्य इष्ट देवता से जुड़ जाता है। स्वाध्याय से मनुष्य के सभी भ्रम व आशंकायें दूर हो जाती हैं। ईश्वर का सत्यस्वरूप ज्ञात हो जाता है। हम व्यस्नों, मांसाहार, पापाचार, दूसरों के शोषण, अन्याय व अत्याचारों को करने से बच जाते हैं। स्वाध्यायशील लोगों को समाज में सम्मानित स्थान व प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।

वेदों के बाद स्वाध्याय का प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश’ है। इसमें मनुष्य जीवन विषयक सभी प्रकार का ज्ञान उपलब्ध है। इसके कुल पृष्ठों की संख्या लगभग 450 है। एक घण्टे में लगभग 15 पृष्ठ पढ़े जा सकते हैं। यदि कोई मनुष्य प्रतिदिन प्रातः व सायं कुल दो घंटे भी सत्यार्थप्रकाश पढ़े तो 15 दिनों में पूरा सत्यार्थप्रकाश पढ़ सकते हैं। आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने 18 बार सत्यार्थप्रकाश पढ़ा था। उनकी कितनी आत्मिक उन्नति हुई, यह हमारे सामने हैं। 26 वर्ष से कम आयु में उनकी मृत्यु हो गई थी परन्तु वेद धर्म प्रचार व उन्नति के लिये उन्होंने अपने अल्प जीवन अवधि में जो कार्य किया उसके कारण वह अमर हैं और हमेशा अमर रहेंगे। उनके विषय में यह कहा जाता है कि वह जिस लाइब्रेरी में चले जाते थे उसे पूरी पढ़कर अथवा उसकी सभी प्रमुख पुस्तकें पढ़कर निकलते थे। उनकी लिखी एक पुस्तक ‘‘वैदिक संज्ञा विज्ञान” अथवा “Terminology of Vedas” आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भी पढ़ाई जाती थी। सभी विदेशी वेद विषयक विद्वानों की भूलों व गल्तियों को भी उन्होंने अपने लेखों व ग्रन्थों के माध्यम से प्रकाशित किया था। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी स्वाध्याय की देन थे। हम सभी ऋषियों सहित ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम आदि को भी स्वाध्याय की देन समझते हैं।

स्वाध्याय के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है। स्वाध्याय से मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है। उसका लोक व परलोक दोनों सुधरता है। आत्मिक व बौद्धिक उन्नति होती है। देश व समाज में उसे प्रतिष्ठा मिलती है। वह पापों सहित मत-मतान्तरों की मिथ्या व जीवन को हानि पहुंचानें वाली सभी बुराईयों से भी बच जाता है। यह सभी लाभ कोई कम महत्व के नहीं हैं। आज ही नित्य प्रति स्वाध्याय का व्रत लें और अपने जीवन को उपयोगी बनाते हुए मनुष्य जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिये साधना का आरम्भ करें। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य