कविता

बचपन सुहाना

बचपन , हाँ बचपन होता है सुहाना

कभी रूठ जाना , कभी मान जाना

वो रोना ,बिलखना ,और आँसू बहाना
फ़िर अगले ही पल जोर से खिलखिलाना
वो मासूम बातें , वो हरकतें पुरानी
याद आये तो बन जाये कहानी
वो लड़ना झगड़ना , बिना बात के ही
बड़ों की जब डांट पड़ती थी खानी
वो गुल्ली वो डंडा , कबड्डी और लंगड़ी
कभी भौंरे कभी कंचे उँगलियों ने पकड़ी
बिना बात के ही कभी दौड़ पड़ना
कभी दोस्तों संग खेलें पकड़ा पकड़ी
खाकर एक टॉफी ना फुले समाते
ना पूछो कि कितनी खुशी हम मनाते
वो गुरुओं से डरना , फिर झूठे बहाने
शरारत वो मस्ती बहुत याद आते
बच्चे ही थे हम था वो बचपन हमारा
ना कोई कमी थी , ना चिंता न झगड़े
बड़े होकर हम इंसां रह भी न पाए
कहीं मजहब तो कहीं हैं पिछड़े अगड़े
ना अब वो समय है न साथी पुराने
बस यादें ही यादें हैं , बहुत ही सुहाने
मैं माँगू ये रब से जो चाहे वो ले लो
लौटा दो हमको फिर बचपन सुहाने
लौटा दो हमको फिर बचपन सुहाने
बाल दिवस के सुअवसर पर एक रचना

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

One thought on “बचपन सुहाना

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    वाकई वोह बचपन का वोह समय सुहाना होता है .खेलना लड़ना झगड़ना और फिर पहले जैसा हो जाना . इसी लिए तो कहते हैं ,बच्चों का बचपन उन्हें भरपूर जी लेने देना चाहिए .

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