कविता

विदाई….

बाबुल ये कैसी प्रथा
जमाने ने बनाई !
जिस घर में पली-बढ़ी
उस घर को छोड़ चली….
कैसे रह पाऊंगी मैं
आप सब के बिन अकेली
रह-रह के सताएगी याद
घर आंगन की…..
क्या आज हो गई मैं इतनी पराई ?
छूट रहे हांथ अपनों के हांथ से
माँ की ममता पिता का स्नेह
बस, एक एहसास बनकर रह जाएगी
यादों की सुखद अनुभूति
हाय !!
न जाने किसने ये प्रथा बनाई
अपनी ही जन्मी बेटी हो रही दूर नजरों से
लो…. जा रही हूं सब छोड़कर मैं
सखी-सहेली गली चौराहे सबकुछ
संग लेकर यादों की पोटली….
और बाबुल…. छोड़े जा रही हूं
बचपन की हंसती मुस्कुराती तुम्हारी गुड़ियां
सहेजकर रखना इन्हें अपनी स्मृतियों में
जब कभी बिटियाँ की याद सताएगी
मुस्कुरा लेना बीते दिनों को याद करके।

*बबली सिन्हा

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