लघुकथा

सीख

कुछ दिनों से राज प्रासाद के पीछे किसी स्त्री के क्रंदन का स्वर सुनाई देता है मंत्री को। वह सुनने, समझने की चेष्टा करता है, कौन है ऐसी जो रोज देर रात को राज प्रादसाद के पीछे बैठकर क्रंदन करती है। क्रंदन ध्वनि का अनुसरण करते हुए वह जाता है तो क्रंदन का स्वर बंद हो जाता है। कुछ दिनों से मंत्री को परेशान देखकर एक दिन राजा ने पूछ लिया..” क्या बात है आजकल आप कुछ परेशान से दिखाई देते हैं। किसी काम में आपका ठीक से मन नहीं लग रहा है। जब कार्य से संबंधित बातें करते हैं तो आप किसी सोच में डूबे हुए रहते हैं। क्या बात है बताइए हमें?”
“महाराज रोज देर रात को राज प्रासाद के पीछे किसी स्त्री के क्रंदन की ध्वनि सुनाई देती है। जब मैं तलवार लेकर उधर जाता हूं तो ध्वनि बंद हो जाती है। पिछले चार-पांच दिनों से यही चल रहा है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है, कौन सी स्त्री है? जो क्रंदन करती है और उसे क्या परेशानी है?”

मंत्री की बात सुनकर राजा भी विचलित हो जाता है। ऐसा कौन हो सकती है जो देर रात को राज प्रासाद के पीछे बैठकर क्रंदन करती है।
कुछ तो बात है, कोई पीड़ा होगी उसे जो किसी को बताती नहीं है। कुछ देर सोचने के बाद राजा ने मंत्री से कहा..” चलो आज रात हम दोनों जाकर देखते हैं। पर हमारे हाथ में कोई तलवार नहीं होनी चाहिए। हम बिल्कुल अस्त्र-शस्त्र के बिना ही जाएंगे।”

रात 12:00 बजे के पश्चात राजा तथा मंत्री दोनों दबे हुए पांव से धीरे धीरे उस क्रंदन ध्वनि की ओर बढ़ रहे थे। थोड़ी दूर जाकर दोनों रुक गए, यह सुनने के लिए की ध्वनि अभी भी सुनाई दे रही है कि नहीं। ध्वनि सुनाई दे रही थी। फिर दोनों धीरे धीरे बढ़े, तब भी ध्वनि बंद नहीं हुई। दोनों उस स्त्री के पास जाकर खड़े हो गए। वह बैठकर घुटनों के बीच अपने चेहरे को छुपाकर क्रंदन किए जा रही थी। उसे राजा तथा मंत्री के आने का आभास नहीं मिला था।

राजा ने धीरे से पूछा..” कौन हो? तुम किस प्रयोजन से यहां बैठी हो? और बैठ कर क्यों रो रही हो? क्या व्यथा है तुम्हारे मन में, हमें बताओ। तुम्हारी व्यथा दूर करने का प्रयास करेंगे हम। उसने अपना चेहरा, रोते हुए ऊपर उठाया तो राजा ने देखा एक बहुत ही अपरूप रूपवती स्त्री थी वह।

“मैं शांति हूं! आपके राज्य में अब रहना मेरे लिए कष्टदायक हो गया है। चारों ओर भीषण दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार के रावण घूम रहे हैं। ऐसे में किसी नारी के नारीत्व को भला क्या सुरक्षा मिल सकती है? मैं सुरक्षित नहीं हूं, किसी दिन मेरे शीलभंग होने का भय है मुझे। अब मुझे यह राज प्रासाद और राज्य छोड़ कर किसी और राज्य की तलाश में इधर से उधर भटकना पड़ेगा। इसलिए मैं दुखी हूं, और अपनी व्यथा किसी को बता नहीं पा रही हूं। और बताने से भी क्या लाभ है? कौन समझेगा मेरी व्यथा? कौन इन रावणों का वध करेगा? सभी अपनी कामना की पूर्ति हेतु अन्याय, अत्याचार और व्यभिचार में लिप्त है। किसी को भला यह चिंता क्यों होगी कि देश की शांति भंग हो रही है। आप तो अपने सुख सुविधा के साथ, अपनी रानियों के साथ तथा अपने कर्मचारियों, मंत्रियों के साथ बहुत सुख पूर्वक दिन व्यतीत कर रहे हैं। आपको भी इस बात की चिंता नहीं है कि राज्य की शांति भंग हो रही है, फिर आपको बताने से क्या लाभ? मेरा कोई अपना नहीं है यहां पर, जिसे मैं यह व्यथा बताऊं। इसीलिए क्रंदन कर रही हूं।”

“देवी.. आप राज प्रसाद में जाकर आराम करिए। जिन लोगों से आपको शिकायत है उन्हें दण्ड अवश्य मिलेगा। कल से मैं अपने सारे कर्मचारियों को नियुक्त करता हूं यह जांच करने के लिए कि राज्य में कौन शांति भंग कर रहा है? कौन व्यभिचार फैला रहा है? सारे रावणों का वध अवश्य होगा। आप निश्चिंत होकर मेरे राज प्रासाद में निवास कर सकती हैं।”
राजा के यह कहते ही तत्क्षण वह स्त्री अंतर्ध्यान हो जाती है। राजा को समझ में आ गया कि यह कोई स्त्री नहीं थी, यह तो मन और राज्य की शांति थी, जो स्त्री का रूप धारण कर मुझे सीख देने आई थी..!!

पूर्णतः मौलिक – ज्योत्सना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com