लघुकथा

मुकदमा

अदालत परिसर से बाहर आकर हरिया एक पेड़ के नीचे बैठ गया और फूट फूटकर रो पड़ा । अचानक उसे ऐसा लगा जैसे उसे कोई झिंझोड़ रहा हो । उसने नजर उठाकर देखा , सामने एक साँवला सा औसत कदकाठी का युवक खड़ा मुस्कुरा रहा था । उसके चेहरे पर गजब का तेज और आकर्षण था । प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखा और बड़ी आत्मीयता से पूछा ,” क्या हुआ ? क्यों रो रहे हो ? “
” क्या करूँ रोने के अलावा ? ” सहानुभूति के दो शब्द सुनकर हरिया एक बार फिर फूट कर रो पड़ा और कुछ देर बाद संयत होकर बताया ,” गाँव में मेरे पुश्तैनी खेत पे अनधिकृत कब्जे का मुकदमा पैंतालीस साल पहले मेरे दादाजी ने दायर करवाया था । चालीस साल बाद तहसील की अदालत में फैसला हमारे हक में सुनाया गया । बता नहीं सकते हमें कितनी खुशी हुई थी । लेकिन इससे पहले कि हमारे खेत हमें वापस मिल पाते उस अनधिकृत कब्जेदार ने इस फैसले के खिलाफ हाइकोर्ट में अपील दाखिल कर दिया । अब पिछले पाँच साल से यहाँ हमें मिल रही है न्याय के नाम पर सिर्फ तारीख पे तारीख । आज तो पड़ोसी से पैसे उधार लेकर आ भी गया था लेकिन मैं रो इसलिए रहा हूँ कि अगली तारीख पर आने के लिए पैसे किससे उधार लुँगा ? मेरे पास अब पैसे तो बचे नहीं हैं ! ” कहकर वह फिर रोने लगा ।
वह युवक मुस्कुराया । उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखकर उसे सांत्वना देते हुए बोला ,” धैर्य रखो ! इंतजार का फल मीठा होता है । अब मुझे ही देख लो ! पिछले लगभग 170 साल से अपने घर पर चल रहे विवाद का मुकदमा झेल रहा हूँ । लेकिन मैं निराश नहीं हूँ ! “
उस युवक की बात सुनकर हरिया चौंका ,” हैं ! क्या कह रहे हो तुम ? कौन हो तुम ? “
” लोग मुझे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के नाम से जानते हैं ! ” कहकर वह युवक मुस्कुराया ।
आश्चर्यचकित हरिया ने अपनी आँखें मलते हुए पुनः उस युवक को देखना चाहा लेकिन अब वहाँ दूर दूर तक किसी का नामोनिशान नहीं था ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।