भाषा-साहित्य

भारत में भाषा का मसला

हम हिंदी भाषी, हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं। हमारी इस भावना का अ-हिन्दीभाषी व्यक्ति या राज्य विरोध करें तो हमें पीड़ा होती है। हमें लगता है कि हिन्दी बहुसंख्यक लोगों की भाषा है इसलिए पूरे देश को उसे राष्ट्रभाषा के रूप में निर्विरोध स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसी अपेक्षा रखने से पूर्व हमें हिन्दीभाषी राज्यों में, हिन्दीभाषी क्षेत्रों में, हिन्दी भाषी लोगों के व्यवहार में हिन्दी की स्थिति पर दृष्टिपात कर लेना समीचीन है।

सभी हिन्दी भाषी क्षेत्रों से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषा माध्यम के विद्यालय अधिकांशतः विलुप्त हो चुके हैं। ऊंचे चमाचम भवनों में महंगी से महंगी सुविधाओं से सज्जित अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय धड़ल्ले से चल रहे हैं। यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालय भी। भले ही उनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को अंग्रेजी ठीक से न आती हो। अंग्रेजी माध्यम के महंगे से महंगे विद्यालयों में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए होड़ लगी हुई है। माता-पिता इसके लिए जी तोड़ मेहनत करते हैं। वह इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। कुछ भी करने के लिए तैयार हैं लेकिन हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में कोई मुफ्त में भी अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता। हिन्दी माध्यम के शासकीय विद्यालयों में भी प्राथमिक कक्षाओं से ही अंग्रेजी सिखाने की तैयारी शासकीय स्तर पर भी जोर शोर से चल रही है। अंग्रेजी पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं है लेकिन अन्य विषयों के शिक्षकों को 20 दिन का क्रैश कोर्स करवा कर अंग्रेजी पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। निम्न आय वर्ग के परिवार भी अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ाना नहीं चाहते। मध्य प्रदेश सरकार ने सभी निजी विद्यालयों के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वह अपने विद्यालयों में निम्न आय वर्ग के बच्चों के लिए प्रत्येक कक्षा में 25% स्थान आरक्षित रखें और प्रवेश परीक्षा लेकर योग्य विद्यार्थियों को नि:शुल्क प्रवेश और शिक्षा दें। माता पिता का व्यवहार परिवार में और सामाजिक रुप से भी ऐसा है जो बच्चों को हिन्दी को हेय दृष्टि से और अंग्रेजी को अभिमान की दृष्टि से देखना सिखाता है। सामाजिक वातावरण ऐसा है कि जो व्यक्ति अंग्रेजी बोलना, समझना, लिखना, पढ़ना नहीं जानता वह स्वयंमेव ही हीनता बोध से ग्रस्त हो जाता है। अंग्रेजी बोलने वालों के समक्ष उसका आत्मविश्वास अपने आप ही डांवांडोल हो जाता है। युवा वर्ग में हिन्दी माध्यम से पढ़कर भारत में रहने का सपना कोई नहीं देखता। सभी को अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर इंग्लैंड, अमेरिका जाकर बस जाने के, वहां की स्वच्छंद जीवन शैली में जीने के सपने ही आते हैं। मध्य प्रदेश के बड़े शहरों के बाजारों पर दृष्टि डालें तो दुकानों, कार्यालयों, घरों, संस्थानों के नामपट पर अधिकांशतः जो भाषा दृष्टिगोचर होती हैै वह हिंदी नहीं है, पूरी निर्लज्जता से विराजमान अंग्रेजी है, जिसकी लिपि मिश्र लिपि है जिसमें अंग्रेजी के कुछ शब्द देवनागरी लिपि में और हिंदी के कुछ शब्द रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। ऐसी लिपि लिखने के नित्य नूतन आकर्षक प्रयोग हिन्दीभाषी क्षेत्रों के बाजारों में दिखाई पड़ते हैं। ऐसी विचित्र लिपि की दृश्यमानता के कारण ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले लोग भी इन नामपटों को पढ़-पढ़ कर धीरे-धीरे अंग्रेजी शब्दावलियों से परिचित और अभ्यस्त होते जा रहे हैं। कितना आसान और प्यारा तरीका है, विदेशी भाषा सीखने, सिखाने का। व्यवसायियों के सभी अभिलेख जैसे देयक पंजी, रोकड़ पंजी आदि अंग्रेजी में है क्योंकि कंप्यूटराइज्ड अभिलेख रखने की बाध्यता के कारण वह अंग्रेजी में काम करने के लिए बाध्य हैं। हिन्दी में अभिलेख रखना भी चाहें तो हिन्दी में कंप्यूटर संचालित करने वाले प्रशिक्षित कामगार नहीं मिलते। मिलें भी तो बहुत महंगे मिलते हैं। हिन्दी भाषी क्षेत्र होते हुए भी सभी उद्यमी व्यावसायिक संस्थान अपने उत्पादों की पैकेजिंग पर, प्रचार में और पारस्परिक व्यावसायिक संव्यवहार में अधिकांशतः अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग करने लगे हैं। बच्चों के खिलौनों और युवाओं के वस्त्रों पर अंकित भाषा इसका प्रमाण है। विशेषकर ऐसे उद्यमी जिनका संबंध विदेश व्यापार से है, वह सारा संव्यवहार अंग्रेजी में ही करते हैं।

बोलचाल में, लोक व्यवहार में जो भाषा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रचलित है वह ना तो हिन्दी है, ना अंग्रेजी। दोनों की खिचड़ी अच्छे से पक रही है। लोक व्यवहार में दोनों भाषाएं इतनी गड्डमड्ड हो गई हैं कि स्थानीय लोगों को पता ही नहीं है कि वह कौन सा शब्द अंग्रेजी बोल रहे हैं, भले ही उच्चारण गलत हो। प्रचलित अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी समानार्थी उनके शब्दकोष में हैं ही नहीं। जो माता-पिता अंग्रेजी नहीं समझते उनका अपने अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों से संवाद लगभग असंभव हो गया है। बच्चे तो इसकी परवाह नहीं करते लेकिन इस संवाद हीनता के कारण माता-पिता कितने तनाव से गुजरते हैं, यह वही जानते हैं। फिर भी हिन्दी माध्यम पर लौटने को तैयार नहीं हैं।

हिन्दी माध्यम के समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में कम से कम एक पृष्ठ अंग्रेजी भाषा में आने लगा है जिसमें न केवल पाठ्य सामग्री अंग्रेजी में होती है अपितु इस पृष्ठ के एक कोने में अंग्रेजी भाषा सिखाने का प्रबंध भी परीक्षा के अनिवार्य प्रश्न की तरह विद्यमान होता है। हिन्दी भाषी रेडियो और टीवी चैनल धड़ल्ले से अंग्रेजी मिश्रित भाषा का उपयोग करते हैं जिससे धीरे-धीरे लोगों के व्यवहार में, बोली में, अंग्रेजी शब्दों की भरमार होती चली जा रही है। यह सब हो रहा है संचार माध्यमों की मिल्कीयत के बड़े अंशों के धारी विदेशी आकाओं के इशारे पर जिन्होंने शायद आपस में मिलकर यह तय कर रखा है कि अन्य सभी भाषाओं का सर्वनाश कर पूरे विश्व को अंग्रेजी भाषी बनाना है। अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए विदेशी सहायता की मोहताज़ हमारी सरकारें इन आकाओं के समक्ष नतमस्तक हैं। निर्माता चाहे देसी हो या विदेशी, निर्माण चाहे भारत में हुआ हो लेकिन हर उत्पाद पर “मेड इन इंडिया” “मेक इन इंडिया” अंकित मिलेगा। “भारत में निर्मित” कहीं अपवादस्वरूप लिखा दिख जाए तो दिल के बहलाने को काफी है। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र जी मोदी के प्रारंभिक व्यवहार से ऐसा लगता था कि वह हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए, लोक भाषा बनाने के लिए वे कटिबद्ध हैं लेकिन दस-पांच विदेश यात्राओं के बाद उनके सुर भी ऐसे बदले कि अब केन्द्र सरकार की हर योजना के शीर्षक में ढीट “इंडिया” अट्टहास कर हमारा मुँह चिढ़ाता है। हिन्दी के पक्ष में आभियान चलाने वालों को जुलूस, धरने या गिरफ्तारी में साथ देने को चार साथी नहीं मिलते।

किस मुँह से हम हिन्दी भाषी हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की मांग करते हैं?

— विजयलक्ष्मी जैन

(साभार – वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)