लघुकथा

खामोशी का राज

जन्मदिन मनाकर आने के बाद अनिल जी के बेटे-बहू-बच्चों ने जिस तरह से अपनी खुशियों का इज़हार किया था, उससे अनिल जी के मन में अभी भी उत्साह हिलोरें ले रहा था. वे अपने मित्र की योजना पर बेहद प्रसन्न थे. उनके मन में पिछले चार दिन के मौन के बाद जो मुखरता आई थी, वह बेमिसाल थी. इस समय भी वे खामोश थे, पर उनकी स्मृतियां मुखर हो रही थीं.

”दादा जी, आपका 75वां जन्मदिन आ रहा है, बताइए हमें कहां ले चलेंगे?” बच्चों ने बार-बार उत्सुकता से पूछा था, पर दादाजी खामोश!

”पापा जी, बताइए कि आपके ख़ास जन्मदिन पर क्या ख़ास प्रबंध किया जाए!” बेटे ने निहोरा किया था, पर पिताजी खामोश!

”हां पापा जी, बताइए न कि आपके जन्मदिन पर क्या-क्या बनाया जाए, ताकि मैं सीधा-सामान मंगवा सकूं!” बहू ने कुछ बोलने-बताने के लिए उकसाया था, पर ससुर जी खामोश!
हमेशा मुखर रहने वाले पापा जी की यह कैसी खामोशी! किसी की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिर जन्मदिन आ ही गया था. सुबह-सुबह सबने आकर जन्मदिन की बधाइयां दी थीं, अनिल जी ने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाकर सबका अभिवादन स्वीकार किया था.

”आपका जन्मदिन कैसे मनाएं?” सबने एक साथ पूछा था. अनिल जी तब भी कुछ न बोले थे, बस जेब से कुछ निकालकर नन्ही-सी पोती को दे दिया. बड़े पोते ने उसके हाथ से छीनकर देखा, ”आज के सांस्कृतिक कार्यक्रम के टिकट?” वह खुशी से चिल्लाया था. गिनकर देखीं, अनिल जी की टिकट भी थी. ”आप भी चलेंगे दादा जी?” उसने उत्सुकता से पूछा था. फिर भी न बोले दादा जी, बस स्वीकृति में सिर हिला दिया था.

आश्चर्य तो सबको हो रहा था, पर कमरे से बाहर निकलकर बहू बिना बोले नहीं रह सकी- ”सुनिए जी, वैसे तो पापा जी कहीं चलते नहीं, कहते हैं- ”छ्ड़ी उठाकर कहां चलूंगा?” आज कैसे तैयार हो गए!”

”शांत रहो, बड़ी मुश्किल से उन्होंने प्रोग्राम बनाया है, अच्छा है न! आउटिंग भी हो जाएगी और उनका जन्मदिन भी अच्छी तरह मन जाएगा.” उसे जवाब मिला था.
ऐन निकलते समय तैयार होकर बैठे अनिल जी, चलने से मुकर गए थे. निहोरे भी काम न आए. ”पापाजी, आपके खाने के लिए क्या बनाके जाऊं?” बहू ने पूछा था.
”कुछ नहीं, मेरा टिकट तो है ही, दिखाकर मेरा पैक भी मिल जाएगा. मैं आराम से घर में खा लूंगा.” अनिल जी ने जेब से एक परची निकालकर दिखाई थी.

बुझे दिल से सबके जाते ही मित्र विनोद आकर उनको साथ ले गए थे.

सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक-से-एक शानदार आइटम चल रहे थे. अंतिम आइटम शुरु होते ही स्टेज के बीचों-बीच अनिल जी को छड़ी लेकर खड़ा देख परिवारीजन हैरान हो गए थे.
गिद्दा चल रहा था, एक उधर से, एक इधर से आता, गिद्दे के सुरीले बोलों पर नाचता और अपनी जगह चला जाता. अनेक जोड़े आए. दादा जी बराबर मुस्कुराते-खिलखिलाते हुए अपनी छड़ी को सुर-ताल से नचा रहे थे.

स्टेज से नीचे उतरकर वे परिवार के पास पहुंचकर अनिल जी ने पूछा था-”कैसा रहा मेरा जन्मदिन?”

”वंडरफुल” सबने एक साथ कहा था. बिना बताए ही खामोशी का राज सबको समझ में आ गया था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “खामोशी का राज

  • लीला तिवानी

    मन को प्रफुल्लित करने वाली इस संदेशप्रद, हृदयग्राही और भावपूर्ण लघुकथा में परिवार की एकता की संकल्पना दर्शनीय है. अनिल जी के जन्मदिन को खास बनाने के लिए पूरा परिवार उत्साहित था, किंतु अनिल जी की खामोशी से कुछ करते नहीं बनता था. अंत में अनिल जी ने ही सरप्राइज दे दिया. जिस छड़ी की शर्मिंदगी से वे बाहर नहीं निकलते थे, उसी छड़ी को उन्होंने संबल बनाकर दर्शकों का मन मोह लिया और अपने जन्मदिन को खास बना दिया.

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