कविता

आना कभी मेरे गाँव

अच्छी नौकरी,चमचमाती गाड़ी,आलीशान बंगला फिर भी बेचैन से रहते हैं
कुछ तो था मेरी उस टूटी झोपड़ी में कि सूखी रोटी से भी काम चल जाता था

सब कुछ पाकर भी साफ हवा,शुद्ध पानी,स्वच्छ निबाले को तरसते रहते हैं
गाँव की खेतों में सोते थे तो चाँदनी सिरहाने लगाती,सूरज जगाता था

हासिल हर चीज़ पर जिस्म थका,मन बोझिल और रूह बीमार सी रहती है
वहाँ पीपल का पेड़ तो कभी बूढ़ा बरगद इश्क़ की कहानियाँ सुनाने आता था

कोई नहीं है यहाँ सुनने वाला और न ही किसी के पास है कुछ भी कहने को
गाँव में टूटी सड़कों का बदन जले तो सावन बेमौसम ही दिन रात रोता था

ये सब सिर्फ कहने या लिखने की बातें नहीं या अफसानों की कोई जिस्त नहीं
आना कभी मेरे गाँव तो पता चले कि सच मुच में कहीं ऐसा भी होता था

सलिल सरोज

*सलिल सरोज

जन्म: 3 मार्च,1987,बेगूसराय जिले के नौलागढ़ गाँव में(बिहार)। शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011), जीजस एन्ड मेरी कॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)। प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका"कोशिश" का संपादन एवं प्रकाशन, "मित्र-मधुर"पत्रिका में कविताओं का चुनाव। सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश। आजीविका - कार्यकारी अधिकारी, लोकसभा सचिवालय, संसद भवन, नई दिल्ली पता- B 302 तीसरी मंजिल सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट मुखर्जी नगर नई दिल्ली-110009 ईमेल : salilmumtaz@gmail.com