गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

बिछड़ कर तुझसे यूं जीना भी क्या कोई ये जीना है
तेरा दर ही मेरा मक्का तेरा दर ही मदीना है

गमों का शौक है मुझको तभी तो दिल लगाया है
कि आंसूं, आहें, तन्हाई भरा मेरा ये सीना है

ज़ुबां पर आ गया मेरी मुहब्बत का जो अफसाना
ये आंखें यूं बरसती हैं ज्यूँ सावन का महीना है

मेरी सूखी हुई आंखें अचानक भीग जाती हैं
नमक हाथों मिला, जब कहती हूं ज़ख्मों को सीना है

भला है यां बुरा है वो, है जैसा भी वो मेरा है
कि उन संग ही है अब जीना वही मेरा दफीना है

यही अंजाम होता है मुहब्बत का मेरे यारो
कहीं राधा, कहीं लैला, कहीं “प्रिया” सा जीना है।

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - priyavachhani26@gmail.com