कहानी

तिनके का सहारा

“अपनी पड़ोस वाली सुगनी बिल्कुल डायन है। पहले तो पांच साल की उम्र में अपनी मां को खा गई। अब पंद्रह साल की उम्र में अपने बाप को भी खा गई।”.. कम्मो की जुबान कैंची की तरह चल रही थी।
“अम्मा जरा सोच समझ कर बात किया करो। एक तो बेचारी अनाथ हो गई है, उसके मां बाप दोनों गुजर गए। इसमें उसका क्या दोष है, वह कैसे खा गई अपने मां, बाप को। उसके पिताजी बीमार हुए, इलाज नहीं हो पाया तो इसमें उसका क्या दोष। एक तो इतनी छोटी सी जान है।मुझे तो बहुत दया आती है उस बेचारी पर। अब ना जाने उसका क्या होगा?”.. सुरेश ने अपनी मां कम्मो को समझाते हुए कहा।
“क्या होगा, कहां जाएगी? गांव में उसके चाचा, चाची रहती है, उनकी छाती पर मूंग दलेगी”.. कम्मो ने फिर तीखे शब्दों का बाण चला दिया।
“अम्मा, उस बेचारी के लिए इतने कठोर शब्द न बोला करो। जरा उसके दुख, दर्द को समझो। बेचारी कितनी दुखी होगी।”.. सुरेश ने फिर मां को समझाते हुए कहा।
“तुझे क्यों इतनी दया आ रही है उस पर? उसके कारण मेरे से लड़ाई कर रहा है। तेरी कौन सी सगी वाली है वह।”.. कम्मो ने फिर से झुंझलाते हुए कहा।
“अपनी गांव की ही है। कोई सगी वाली नहीं है। तुमसे तो बात करना ही बेकार है, जब देखो तब किसी की बुराई लेकर बैठ जाती हो। तुम्हें किसी में कोई अच्छाई नजर नहीं आती।”.. सुरेश ने भी झुंझलाते हुए अपनी मां को उत्तर दिया।

बेचारी सुगनी, मां बाप के गुजर जाने के बाद चाचा, चाची के पास रहने लगी। चाचा, चाची ने तो जैसे जुल्म करने में कोई कमी ही नहीं रखी। सुबह से उठकर लग जाती काम में तो रात तक यह सिलसिला चलता रहता। फिर भी पेट भर खाने को न मिलता उसे। बेचारी का दुख, दर्द देखकर गांव वाले मन मसोस कर रहे जाते। किसी ने कुछ कह दिया तो, उसकी चाची बिफर पड़ती..” तो अपने ही घर में रख लो ना, खिला लो बिठाकर। हमारे छाती पर मूंग दलने के लिए क्यों छोड़ रखा है?”
सुगनी पर होते हुए जुल्म को सुरेश रोज देख रहा था। उसका खून खौल जाता, लगता कि किसी दिन जाकर अच्छी तरह दोनों को यह बताकर आए कि तुम लोग इंसान हो कि नहीं हो। पर.. वह भी क्या करता? मन मसोस कर चुप रह जाता, कुछ बोलेगा तो चाची तो जैसे खाने को दौड़ेगी। ऊपर से अपनी मां की कड़वी कड़वी बातें, वह सहन नहीं कर पाता था। उसे सुगनी से बहुत हमदर्दी थी, पर.. कुछ बोल नहीं पाता था।

सुगनी सोलह साल की हो गई थी, इस चिंता से चाचा, चाची की रात की नींद गायब हो गई थी। पड़ोस के गांव के एक पचास साल के बीमार आदमी से सुगनी की शादी तय कर देते हैं चाचा चाची। सुगनी बेचारी क्या करती, वह तो खूटे से बंधी हुई गौ थी। चाची सब से कहती फिरती कि ..”खाते पीते घर का आदमी है, सुगनी वहां जाकर सुखी रहेगी, नहीं तो इस नासपीटी से कौन शादी करेगा? सब जानते हैं वह डायन है, पहले ही अपने मां-बाप को खा गई है।”

सुगनी रो रो कर चली गई ससुराल, पर..वह शादी से खुश नहीं थी। और.. ना ही सुरेश को यह बात अच्छी लगी। कहीं ना कहीं उसके मन में कुछ दुख था सुगनी के लिए। पर..वह किसी से कुछ कह नहीं पाता था, इसलिए चुप रह जाता। वह समझ नहीं पाता कि सुगनी के लिए उसके मन में इतनी तड़प क्यों है? सुगनी उसकी कौन है, क्या लगती है? सुरेश को समझ में नहीं आता कि सुगनी के जाने के बाद उसे सब कुछ सूना सूना सा क्यों लगता है? जब वह थी तब उससे वह बात भी नहीं करता था, परंतु फिर भी उसे सब कुछ अच्छा लगता था।

सुगनी के ससुराल गए हुए दो साल हो गए, इस बीच ना वह कभी चाचा, चाची के घर आई और ना ही कभी चाचा, चाची उसकी खबर लेने गए कि वह किस हाल में है। बेचारी सुगनी, कोई नहीं था उसका इस दुनिया में।

एक दिन सुगनी अचानक चाचा, चाची के घर आई, सफेद साड़ी में लिपटी हुई। बाल उलझे उलझे, बिखरे हुए, बिल्कुल दुबली पतली सी हो गई थी। चेहरे पर कोई रौनक नहीं। सुगनी का पति पहले से ही बीमार था, तो उसने अपने पति की बहुत सेवा की परंतु उसे बचा नहीं पाई और एक दिन वह चल बसा। उसके पति के बड़े बड़े बच्चे थे जिन्होंने सुगनी को मारपीट कर घर से निकाल दिया यह कहकर कि..”मेरे पापा की मौत तेरे कारण ही हुई है। सब जानते हैं तू डायन है, तू जहां जाती हैं वही कुछ ना कुछ बूरा होता है।” कहां जाती बेचारी, ले देकर चाचा,चाची के पास ही उसे लौटना पड़ा। वह जानती थी अगर चाची के पास गई तो मुझे चैन से जीने नहीं देगी। पर.. वह और क्या करती, मजबूरी में आना पड़ा।

“क्यों रे कलमुंही आ गई फिर अपने पति को खाकर, मेरी छाती पर मूंग दलने के लिए।”.. सुगनी की चाची चिल्लाए जा रही थी।
सुगनी बिल्कुल मुंह लटकाए बैठी हुई थी जैसे उसके शरीर में जान ही नहीं है। सुरेश पड़ोस में खड़े खड़े सब सुन रहा था। आज उससे देखा नहीं गया, और ना सुना गया यह सब। उस ने ताव में आकर कहा..” क्यों चाची, क्यों इस बिचारी को इतना कोसती रहती हो हमेशा। इसके पीछे पड़ी रहती हो और जो मुंह में आए वही बक देती हो। इसका कोई नहीं है दुनिया में इसका मतलब यह तो नहीं कि इसके साथ जो मन में आए, वही करो। जरा भगवान से डरो।”
“तू कौन होता है मुझे बोलने वाला? और यह तेरी कौन लगती है? कल का छोकरा मुझे धमकी दे रहा है। अरे सुरेश की मां, जरा अपने बेटे को समझा दो आगे से ऐसा किया तो अच्छा ना होगा। तूझे अगर इतनी दया आती है इस पर, तो ले जा इसे अपने घर में और बैठा ले।”.. सुगनी की चाची ने चिल्ला चिल्ला कर सारा मोहल्ला इकट्ठा कर लिया था।
“हां.. हां.. ले जाऊंगा, पर ऐसे नहीं इज्जत से ले जाऊंगा, देख लेना एक दिन।”.. सुरेश भी कहां कम पड़ने वाला था वह भी दम लगाकर बोल रहा था।
“बड़ा आया इज्जत वाला। आईने में अपना चेहरा देखा है, जो यहां मुंह उठा के चला आया है। जा, निकल यहां से।”.. सुगनी के चाची ने चिल्लाकर कहा।

सुरेश गुस्से में पैर पटकता हुआ निकल गया। पर.. उसका मन वही अटका पड़ा था। सुगनी के बारे में सोच सोच कर बहुत परेशान था वह। अब क्या होगा इस बिचारी का, इसकी चाची तो बिल्कुल राक्षसी है, चैन से जीने नहीं देगी इसको। क्या करें, क्या नहीं करें, सोचते सोचते घर गया तो मां की अलग से डांट सुनने को मिली..” क्यों मुंह लटकाए चला रहा है? कहां गया था, पड़ोस में? सूगनी के लिए लड़ने के लिए। उस मनहूस के लिए।”
“मां सुगनी को कुछ मत कहना। वह बेचारी वैसे ही दुखी है। तुम्हारा क्या बिगाड़ा उसने, जो हमेशा उसके पीछे पड़ी रहती हो।”.. सुरेश ने गुस्से में अपनी मां से कहा।
उस दिन शाम को सुरेश खेत से लौट रहा था। बीच में एक जंगल पड़ता है, उधर से गुजर रहा था तो देखा सुगनी एक पेड़ से रस्सी बांध रही थी। शायद उससे लटकने के लिए। तो एकदम से ठिठक कर रुक गया और पूछा…”क्या कर रही हो सुगनी यहां पर? शाम के समय, अंधेरा हो रहा है, जंगल है।”
“कुछ नहीं तुम जाओ! मुझे अकेला छोड़ दो।”.. सुगनी ने भी गुस्से में कहा।
“चलो घर चलो! यहां ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं है, रात हो रही है। मेरे साथ चलो।”.. सुरेश ने समझाते हुए कहा।
“घर, कौन सा घर? किस का घर? मेरा कोई घर नहीं है, ना मेरा कोई है। मेरे मन में जो आएगा मैं करूंगी। तुम जाओ यहां से।”.. सुगनी ने फिर से गुस्से में कहा।
“तो तुम मरना चाहती हो फांसी लगाकर?”
“मरूं नहीं तो क्या करूं, रोज-रोज सब की गालियां सुनूं और मार खाऊं क्या? मेरे मर जाने से क्या फर्क पड़ता है किसी को? कौन रोएगा मेरे लिए।”
“मैं रोऊंगा तेरे लिए सूगनी। तेरे जाने के बाद मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था, पर.. मैं भी क्या करता, मजबूर था। पर..अब मैं तुझे मरने नहीं दूंगा और ना ही किसी कि मार खाने दूंगा। न ही तुझे किसी की गालियां खाने दूंगा। चल मेरे साथ।”
“तुम्हारे जाने के बाद चाची ने मुझे बहुत पीटा। अब क्या तुम्हारी मां की पिटाई खाने जाना है मुझे। तुम्हारी मां भी कोई कम नहीं है। हमेशा मुझे बुरा भला कहती रहती है। वह तो मैं मजबूर हूं इसलिए सुनती रहती हूं। मुझे पता है तुम्हारी मां कैसी है।”
“पहले मैं छोटा था और डरता था मां से, चाचा चाची से, गांव वालों से, पर.. अब मैं नहीं डरता! तू अगर मेरा साथ दे तो मैं सब का सामना कर लूंगा। बोल तू मुझसे शादी करना चाहती है, तो मैं तुझ से शादी कर लूंगा। कोई पंडित शादी ना कराए तो मंदिर में जाकर हम दोनों शादी कर लेंगे। बस तू तैयार है तो मैं सब कर लूंगा।”
तुम्हारी मां नहीं मानी और तुम्हें घर से निकाल दिया तो, कहां जाएंगे हम! नहीं ऐसा नहीं हो सकता। मेरे कारण तुम अपनी मां से दुश्मनी न लो, मां को दुखी न करो। यह मैं नहीं चाहती।”
“तुम मरना चाहती हो, पर.. जिंदगी का सामना नहीं करना चाहती! मैं तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहता हूं और तुम छुड़ाना चाहती हो?”
“मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा।”.. कहकर सुरेश ने सुगनी का हाथ पकड़ कर खींचते हुए उसे ले गया। अपने घर पहुंच कर देखा मां आंगन में बैठे उसका इंतजार कर रही थी। उसने जैसी ही सुगनी को देखा तो उबल पड़ी..” इस कलमुंही को कहां से लेकर आया तू। मनहूस को मेरे आंगन में मत लाना नहीं तो मेरा भी कुछ अनिष्ट हो जाएगा। यह तो डायन है, सबको खा जाती है।”
“मां सुगनी को कुछ मत कहना! नहीं तो मैं घर छोड़ कर चला जाऊंगा, फिर तुम रह लेना अकेली घर में शांति से!”.. सुरेश ने गुस्से में कहा।
‌”जाना है तो जा, पर इस मनहूस को मेरे घर में मत लाना, कह देती हूं, हां। पहले तो मां-बाप को खा गई। अब पति को भी खाकर आ गई डायन।”.. सुरेश की मां उबल पड़ी।
सुरेश मां की बात को और बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। उसे सुगनी से प्यार हो गया था, सुगनी के बारे में कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं था वह। उसने गुस्से में मां को उत्तर दिया..” अगर सुगनी डायन है, तो.. तुम क्या हो? तुम भी तो अपने पति को खा गई। तभी तो अब मेरे बाबा नहीं रहे।”

अपने बेटे की बातें सुन कम्मो को एक झटका सा लगा। वह मन ही मन सोचने लगी..” सच ही तो कह रहा है सुरेश। मुझे ऐसे किसी को भी नहीं कहना चाहिए। मैंने तो सोचा ही नहीं था इस बारे में कभी। अगर किसी की मौत हो जाती है तो इसमें किसी और का क्या दोष। भगवान ने जिसको जितनी आयु लिखी है वह उतने ही दिन तो जिएगा। इस बेचारी का क्या दोष इसके मां-बाप गुजर गए, यह बेचारी तो बहुत दुखी है। और पति तो बीमार था ही पहले से, उसकी मृत्यु हो गई तो इसमें इसका क्या दोष। बचपन से ही यह बेचारी, मुसीबतों की मारी है। कोई नहीं है इसका इस दुनिया में, अगर हम इसको सहारा देते हैं तो भगवान हमारा ही अच्छा करेगा।”

“सुरेश मैं तनिक आती हूं।”.. कम्मो ने कहा।
सुरेश को डर लगा कि मां कहां जा रही है? उसने पूछा..” कहां जा रही हो अम्मा इतनी रात को!”
“मैं जरा पंडित जी से मिलने जा रही हूं। देखती हूं शादी का मुहूर्त कब निकलता है। अच्छा मुहूर्त देख कर तुम दोनों की शादी करा दूंगी। इस बिचारी को एक सहारा मिल जाएगा। अब इसे अपनी चाचा, चाची के पास नहीं भेजूंगी मैं। बहुत दुख देखे अपने जीवन में इसने और मैं दुखी नहीं करूंगी। अपनी बेटी की तरह रखूंगी। बहुत भोली भाली है बेचारी।”
मां की बात सुनकर सुरेश ने सुगनी की ओर देखा, तो.. सूगनी ने मुस्कुरा दिया। सुरेश सुगनी का हाथ पकड़े हुए मां को जाते हुए देख रहा था। और दोनों मन ही मन सोचने लगे कि..” हमें आज मन का मीत मिल गया।” और एक डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया..!!!

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com