उपन्यास अंश

ममता की परीक्षा ( भाग – 17 )

ममता की परीक्षा ( भाग – 17 )

रुकते रुकते भी कार थोड़ा आगे बढ़ गई थी । गोपाल ने खिड़की से सिर बाहर निकालकर पीछे देखा । वह पीले कुर्ती वाली लड़की सड़क के किनारे फुटपाथ पर झुकी हुई अपने पैरों में कुछ देख रही थी । कार की तरफ उसका ध्यान नहीं था । गोपाल ने उसका ध्यान आकृष्ट करना चाहा ,” हाय ! …….हाय ! ”
” क्या हाय हाय लगा रखी है ! जरा प्यार से बुला न ‘ ओ बहनजी ! जरा सुनिए । ” जमनादास ने उसे चिढ़ाते हुए उस बस स्टॉप वाले आदमी की नकल उतारते हुए कहा था ।
सुनते ही बिफर पड़ा था गोपाल , ” अबे बहनजी होगी तेरी ! मेरी तो ……..! ”
” हाँ ! ……क्या ?….. तेरी तो …….! बता आगे ! …….तेरी तो क्या ? ” जमनादास ने हंसते हुए उसे और चिढ़ाया था ।
तभी गोपाल दरवाजा खोलकर बाहर उतर गया और उस लड़की की तरफ बढ़ा । अब वह अपने दूसरे पैर का सैंडल निकाल रही थी । गोपाल उसके नजदीक पहुंच गया ।
” क्या हुआ ? आप तो इसी बस से जा रही थीं न ? क्या हुआ बस को ? ” गोपाल ने जबरदस्ती बात करने के लिए भूमिका बनाई ।
लड़की ने अपना सैंडल हाथों में लेते हुए जवाब दिया ,” हां ! इसी बस में थी । लेकिन इसका टायर ही पंचर हो गया । अब क्या करूँ ? पहले ही देर हो रही है और ऊपर से इस सैंडल को भी आज ही टूटना था । ” हताशा और निराशा उसके चेहरे से साफ झलक रही थी ।
गोपाल को तो इसी मौके की तलाश थी ,” मैं गोपाल ! तुम्हारे ही कॉलेज में पढ़ता हूँ । अपने दोस्त के साथ कॉलेज ही जा रहा था कि यहां बीच सड़क धूप में तुमको परेशान देखकर रुक गया । अब कोई कॉलेज का लड़का या लड़की किसी मुसीबत में हो तो नजरअंदाज नहीं किया जा सकता न ? ” गोपाल ने अपना प्रभाव जमाना चाहा था ,” चलो ! सामने ही गाड़ी खड़ी है अगर आना चाहो तो वेलकम ! ” कहकर वह उसकी तरफ देखे बिना कार की तरफ बढ़ने लगा । आंखों के कोनों से उसकी नजर पीछे लड़की की हरकत पर भी थी । वह अभी तक असमंजस में थी और बार बार परेशानी में अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देखती फिर कुछ सोचती और फिर दूसरी तरफ देखने लगती । अचानक गोपाल पलटा था ,” अरे ! देखो ! मैं भी कितना पागल हूँ । अपना नाम तो बता दिया लेकिन तुम्हारा नाम पूछा ही नहीं ! नाम क्या है तुम्हारा ? ” गोपाल ने बड़े मजाकिया अंदाज में कहा तो लड़की के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई । मुस्कुराते हुए ही जवाब दिया ,” जी साधना ! ”
अचानक गोपाल ने बुरा सा मुंह बनाया ,” ये क्या ? जी साधना ? अरे कोई अपना नाम ऐसे बताता है क्या ? ऐसे कहिये न ….साधना जी ! ”
उसकी मुखमुद्रा देखकर साधना खिलखिला पड़ी थी । ” जी सही कहा आपने ! साधना ….साधना है मेरा नाम ! ”
” वाह ! बहुत प्यारा नाम है ! ” कहने के बाद वह मुंह में ही बुदबुदाया था ” जी करता है जिंदगी भर साधना ही करता रहूँ ! ”
साधना ने भी औपचारिकता निभाई थी ,” जी शुक्रिया !” कहकर !
तब तक इनकी हरकतों से अनजान जमनादास ने कार रिवर्स कर लिया था और गोपाल को देखकर चिल्लाया ,” अबे ओ नवाब की औलाद ! कितने बज गए कुछ पता भी है ? …..”
” क्या ? सच्ची ! मैं नवाब की औलाद हूँ ? अबे गधे ! तूने यह बात पहले क्यों नहीं बताई ? मैं तो खुद को बिजनेसमैन शोभालाल की औलाद समझ रहा था ! ” पलकें झपकाते हुए गोपाल ने जो जवाब दिया तो साधना की हंसी छूट गई । उसे खिलखिलाकर हंसते हुए देखकर गोपाल ने मूर्खों की तरह हरकत करते हुए साधना से पूछा ,” क्या मैं जान सकता हूँ आपकी खुशी की वजह ? अरे बाप मेरा नवाब बना है और खुश आप हो रही हैं ? ”
उसके पूछने का अंदाज देखकर साधना का हंसते हंसते बुरा हाल हो गया । बड़ी मुश्किल से वह खुद को संभाल पाई थी कि तभी जमनादास ने कार से बाहर आकर गोपाल को कंधे से पकड़कर कार की तरफ धकेलते हुए बोला ,” चल चल ! बहुत हो गई तेरी नौटंकी ! अब समय नहीं बचा है । गाड़ी में बैठ ! ”
अचानक गोपाल समझदारी की चादर ओढ़े हुए बोला ,” हां यार ! इतनी साधना करने के बाद भी ये देवी नहीं प्रसन्न हुई ! लगता है अपनी साधना में ही कोई कमी रह गई है । ” कहते हुए गोपाल ने कार का दरवाजा खोला और अभी वो बैठकर दरवाजा बंद करने ही जा रहा था कि साधना की मधुर आवाज उसके कानों में पड़ी ” सुनिए ! ”
” हां सुनाइये ! क्या सुनाना चाहती हैं आप ? ” गोपाल ने कार में बैठे बैठे ही दरवाजा खोलकर उसकी तरफ मुस्कुराते हुए देखा था ।
उसे अपनी ही तरफ देखते हुए महसूस कर साधना झेंप गई थी । ” वो आप बोले थे न कि हमको भी कॉलेज तक अपनी कार से छोड़ देंगे तो ……! ” रुक रुक कर अटकते हुए साधना इतना ही कह सकी थी । ” अरे ! तो हमने कब आपको मना किया था ? हम तब से आपको यही तो समझा रहे थे और आप हैं कि समझने को तैयार ही नहीं हैं । अरे साधना जी ! कौन सी दुनिया में जी रही हैं आप ? अब वो जमाना गया जब लड़के और लड़कियां आपस में बात भी नहीं करते थे । वो रूबी याद है आपको ? अरे वही बॉबकट बालों वाली ! इंदिरा गांधी जैसी जो दिखती है लंबी नाक वाली । कितने फर्राटे से और शान से अपनी लम्ब्रेटा स्कूटर पर कॉलेज आती है । उसके आधुनिक कपड़ों की सब तारीफ करते हैं । कॉलेज के सभी लड़के लड़कियों से उसकी दोस्ती है और एक तुम हो जिसे सीधे से यह भी कहना नहीं आता कि ‘ मुझे लिफ्ट दे दो अपनी कार में । मुझे भी कॉलेज में जाना है । ‘ ”
” गोपाल बाबू ! जमाना चाहे जहां चला जाय लेकिन मुझे अपने आदर्शों और संस्कारों के साथ ही जीना है । हमारे पुरखों ने हमारे लिए जीवन जीने के आदर्श तरीके निर्धारित किये हुए हैं जिसमें सभी का सम्मान , सहयोग व परस्पर स्नेह की भावना सबसे पहले है । आधुनिकता के नाम पर मैं अपने पुरखों के आदर्श को पलीता नहीं लगा सकती । आप जिस रूबी की शान में कसीदे पढ़ रहे हैं उसे मैं अच्छी तरह से जानती हूं । हमारे ही मोहल्ले की है । पिता की एक छोटी सी चूड़ियों की फैक्ट्री है । माँ उसकी आज भी सर ढंके बगैर घर से बाहर नहीं निकलती । पिता रात दिन कुछ कामगारों के साथ फैक्ट्री में अपना काम करते हैं । बेटी की खुशी के लिए उन्होंने अपनी फैक्ट्री गिरवी रखके उसे वह स्कूटर दिला दी है जिसे वह बड़ी शान से चलाकर कॉलेज आती है । क्या यही आधुनिकता का नतीजा है कि झूठी शान के लिए अपने पिता को कर्जदार बना दो ? लेकिन मैं समझती हूँ इसमें दोषी अकेले रूबी ही नहीं उसके माता पिता भी बराबर के दोषी हैं । वह कैसे कपड़े पहनती है क्या उसके माता पिता की नजर उसपर नहीं जाती ? क्या हमारा समाज , हमारे आदर्श इस बात की इजाजत देते हैं कि अपने जिस्म की नुमाइश बेशर्मी की हद तक की जाय ? यहाँ कॉलेज आने का मकसद क्या है ? अपनी शिक्षा पूरी करना या खुद को आधुनिक बनता हुआ दिखाना ? आधुनिकता पहनावे से नहीं वरन विचारों से आती है । हमारे माता पिता भी आधुनिक हैं लेकिन ऐसे दिखावे के नहीं बल्कि विचारों से । यदि वो आधुनिक विचारों के नहीं होते तो मैं आज इस कॉलेज में नहीं पढ़ रही होती और वो भी अपने घर से इतनी दूर । उन्हें भरोसा है अपनी बेटी पर और यह भरोसा मैं मरते दम तक बनाये रखना चाहूंगी । भारतीय रहन सहन , भारतीय परिधान ही हमारे लिए आदर्श हैं । हमें नहीं बनना ऐसी आधुनिक जो दूसरों के मनोरंजन का साधन बने ! ” कहते हुए साधना ने गहरी नजरों से गोपाल की तरफ देखते हुए कहा था ।
तभी कार का पीछे का दरवाजा खोलते हुए गोपाल मजाकिया स्वर में बोला ,” अब चलें देवीजी ? कॉलेज का समय हो गया है । ”
जल्दबाजी से कार में घूसते हुए साधना बोली ” हाँ हाँ ! क्यों नहीं ? ”
कार के पीछे का दरवाजा बंद करते हुए कुछ झुकते हुए गोपाल ने कुछ इस अंदाज में कहा ” जो आज्ञा देवीजी ! ” कि उसे देखते ही साधना की हंसी छूट गई । गोपाल के बैठते ही जमनादास ने गाड़ी आगे बढ़ा दी थी ।

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।