लघुकथा

”अभिशप्त कौन?”

रूपेश को आज अपनी नई कहानी के लिए शीर्षक ”अभिशप्त कौन?” मिल गया था और प्रस्तुति की संकल्पना भी. स्मृति के वातायन से शीतल हवा का झोंका उसे सहला रहा था. उसकी स्मृति का वातायन उसके सुबह के दृश्य को रूपायित कर रहा था.
हमेशा की तरह रूपेश अपनी नई कहानी के लिए विषय की खोज में सुबह-सुबह सैर पर निकला था. इस धुन में कभी-कभी उसे दूर तलक जाना पड़ता था, आज कुछ और ही हुआ.
पास ही मरियल-सी काया वाला एक व्यक्ति एक पेड़ के पास हाथ में कटोरा लिए खड़ा उसे दिखाई दिया. रूपेश को वह व्यक्ति अभिशप्त-सा लग रहा था. शायद उसे बहुत दिनों से कुछ खाने-पीने को नहीं मिला होगा!
”क्या आपकी जिंदगी में कोई समस्या है?” रूपेश ने उससे पूछ ही लिया.
”नहीं.” उसने कहा था.
”फिर चिंता क्यों?” रूपेश उससे अगला सवाल करना चाहता था, पर उसके जवाब ”नहीं” ने उसे कुछ बोलने ही नहीं दिया था. वह चुपचाप देखता रहा. व्यक्ति अपने छोटे-से कटोरे से वृहतकाय पेड़ की सिचाई कर रहा था. फिर उसी कटोरे से उसने कुछ बीज भी वहां छितरा दिए. शायद इसी आशा में, कि कभी-न-कभी इनमें अंकुर फूटेंगे.
इसके बाद वह व्यक्ति संतुष्ट होकर वहां से चला गया, रूपेश देखता ही रह गया. तभी एक वृहतकाय तोंद वाला खाते-पीते घर का-सा लगने वाला व्यक्ति आ गया. ऊपर से मस्त दिखने पर भी उसके मस्तक पर चिंता की रेखाएं रूपेश को साफ दिख रही थीं. न जाने उसे क्या सूझी कि उसने उस व्यक्ति से भी वही प्रश्न कर डाला-
”क्या आपकी जिंदगी में कोई समस्या है?”
”हां.” उसने कहा था.
”आप इसे हल करने के लिए कुछ कर सकते हैं?”
”हां.” उसने कहा था.
”फिर चिंता क्यों?” रूपेश ने उससे पूछने का अवसर मिल गया.
”निःसंदेह मैं कर सकता हूं.” व्यक्ति ने कहना जारी रखा- ”मेरे जीवन की समस्या है- सुरा-सुंदरी. सुरा के बिना मैं रह नहीं पाता और सुरा के बाद सुंदरी की जरूरत महसूस होती है. जानता हूं, कि सुरा मेरे तन-बदन को भीतर से खोखला कर रही है, मैं सुरा को ”न” करना चाहता हूं, लेकिन दिल है कि मानता नहीं.”
रूपेश को महाभारत के पितामह भीष्म की वह बात याद आ गई, कि यह ”लेकिन” ही व्यक्ति के संकल्प की नाव को डगमगाकर उसे अभिशप्त बना देता है. उसे उस चिंतित व्यक्ति की असंतुष्टि और वृहतकाय तोंद का राज समझ में आ गया था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “”अभिशप्त कौन?”

  • लीला तिवानी

    अक्सर देखा गया है, कि सामान्य शनहीन व्यक्ति अपने सीमित साधनों में भी संतुष्ट एवं सुखी होता है, जब कि धन-संपन्न व्यक्ति अतुलित साधनों के होते हुए भी असंतुष्ट एवं रोगी होता है.

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