लघुकथा

विवेक

आज उसका नया नामकरण हुआ था. उसका नाम रखा गया था- विवेक. इसी उपलक्ष में आज उसको छुट्टी मनाने की छूट भी मिली थी. 25 साल में पहली छुट्टी. इससे पहले उसे पता नहीं था कि छुट्टी किसे कहते हैं और छूट के क्या मजे होते हैं. कहने को तो कई बार उसे छुट्टी मिली थी, लेकिन असल में वह नागा होता था. उस दिन न काम न आराम न वेतन-मजूरी, बस चिंता और फाका. भला बिना काम के खाना कहां से मिलेगा? आज अपनी इस पहली छूट का उपयोग वह आइने में अपने को निहारने में कर रहा था, बुद्धू से विवेक बनने से उसके चेहरे में कोई अंतर आया क्या? बुद्धू से उसे अपना अतीत याद आया.
आज से एक साल पहले रोज सुबह बुद्धू को मजदूर चौक पर देखा जाता था, जहां वह उस दिन के लिए बिकने आता था. उस दिन भी वह बिकने आया था, पर बिक नहीं सका था. मंदिर के पास अपने मित्र गिरधर को देखकर उसके कदम वहीं ठिठक गए थे. उस दिन गिरधर भी नहीं बिक सका था. अभी बुद्धू ठीक से बैठ भी नहीं पाया था, कि एक खाते-पीते घर की महिला का जोरदार ताना मिला-

”इतने मुस्टंडे भी भिखारियों की लाइन में बैठ जाते हैं, कुछ काम क्यों नहीं करते!”
बुद्धू इस ताने के बारे में कुछ कह-सोच पाता, कि महिला की चिल्लाहट शुरु हो गई, ”पकड़ो-पकड़ो, चोर मेरा पर्स ले गया.”
हट्टे-कट्टे बुद्धू ने फुर्ती से दौड़कर चोर को पकड़ लिया और उससे पर्स वापिस ले लिया. वह चाहता तो पास आती भीड़ से उसे पिटने भी दे सकता था, पर यह सोचकर कि न जाने किस मजबूरी ने उससे यह गलत काम करवाया, उसे जाने दिया. महिला के पास आते ही उसे पर्स देकर वह वापिस जा रहा था, कि उसे रुकने का आदेश दिया गया- ”रुको, कहां जा रहे हो?” महिला ने कहा.
”काम न मिलने पर यूं ही इधर-उधर भटकते रहना हमारा शुगल है, सो वही करूंगा.”
”शायद मेरे ताने से तुम नाराज हो गए हो. आज से तुम्हें काम मिल गया है, अब तुम मेरे यहां काम करोगे.” बुद्धू को विश्वास करना ही बेहतर लगा. उसे घर में काम करने के लिए रखा गया. गॉर्ड के न आने पर वह चौकीदारी भी बखूबी कर लेता था. हां, पढ़ने-लिखने के मामले में तो वह पहले वाले नाम के अनुरूप बुद्धू ही था. मालकिन की बेटी ने वह कमी भी पूरी कर दी थी. इस एक साल में वह लिखना-पढ़ना और थोड़ा-बहुत हिसाब-किताब करना भी सीख गया था. 
इसी से खुश होकर मालिक ने आज उसको पुनः नामकरण के बंधन में बंधवाया था. वह बुद्धू बनकर यहां आया था, अब विवेक हो गया है. वैसे अनपढ़ होने के बावजूद मालिक के पूरे परिवार को उसमें विवेक की कमी कभी भी महसूस नहीं हुई थी,

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “विवेक

  • लीला तिवानी

    कहते हैं यथा नाम तथा गुण, पर कुछ लोग इन सबसे बहुत अलग होते हैं. उनका नाम बुद्धू रखा जाए या विवेक, उनके गुण यथावत बने रहते हैं. विवेक के साथ भी ऐसा ही हुआ था.

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