गीत/नवगीत

नवगीत – झाड़ रहे हैं पल्ला

बेच रहे वे सपने कब से
मचा-मचाकर हल्ला
देखो कैसा खेल चल रहा
उनका खुल्लम-खुल्ला

आसमान के चाँद सितारे
धरती पर लायेंगे
बिजली की परवाह नहीं
सूरज नया उगायेंगे
चाहे कोई इनको कहता
फिरता रहे निठल्ला

उत्तरदायी गर्म मुट्ठियाँ
हमको भरमाती हैं
सिर्फ हवा में बातें करती
मन को बहलातीं हैं
बात-बात पर चउवे-छक्के
घुमा रहे हैं बल्ला

भटक रही दर-दर बेकारी
माथे पर बल डाले
हाँक रहे बस लम्बी चौड़ी
वादे करने वाले
जुर्म गरीबी बेकारी से
झाड़ रहे हैं पल्ला

पर्णकुटी की छाँव छोड़कर
पडे़ कहाँ हो भाई
ये मृगतृष्णा सिर्फ छलावा
खडे़ जहाँ हो भाई
कठिन समझ पाना है इसको
ये चालाक मुहल्ला

गहरी होती जाती निश-दिन
माथे की रेखायें
अब तो टूट रहीं हैं सबके
धीरज की सीमायें
कब तक सहन करोगे लल्ला
उनके बने पुछल्ला

बेच रहे वे सपने कब से
मचा-मचाकर हल्ला
देखो कैसा खेल चल रहा
उनका खुल्लम-खुल्ला

जयराम जय

जयराम जय

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