कहानी

झूठी शान

झूठी शान ( कहानी )

” क्या कह रहे हो ? ……कैसे ? ………. ये कब हुआ ? ” फोन पर बात करते हुए अशोक बाबू अचानक उत्तेजित हो उठे थे ।
फोन पर दूसरी तरफ से कुछ कहा गया ।
” धन्यवाद भाईसाहब ! हमें सूचित करने के लिए । मैं आ रहा हूँ …..” कहने के साथ ही अशोक बाबू ने जोर से अपनी धर्मपत्नी सीता को आवाज लगाई ,” अरे भागवान ! सुन रही हो ! हमें जल्द से जल्द नरसिंहपुर पहुँचना होगा । रजनी की हालत गंभीर है । अभी पड़ोस के रामबाबू का फोन आया था । ”
भीतर से लगभग दौड़ कर आती हुई सीता ने व्यग्रता से पूछा ,” क्या हुआ है उसे ? वह ठीक तो है न ? ”
” ठीक से कुछ भी नहीं पता । पड़ोसी ने इतना ही बताया कि रजनी बहुत ज्यादा जल गई है । उसे उसके घर वाले अस्पताल लेकर गए हैं । ” बताने के बाद अशोक का चेहरा रुलाई रोकने के प्रयास में बनने बिगड़ने लगा था ।
” हे भगवान ! मेरी बेटी की रक्षा करना । ” सीता ने जल्दी से साड़ी ठीक की और दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए बोली ,” चलिए ! जल्दी कीजिये । पता नहीं किस हाल में होगी मेरी बच्ची …..! ” कार में बैठते हुए सीता दहाड़ें मार कर रोने लगी थी । अशोक बाबू के चेहरे पर भी चिंता की लकीरें साफ दिख रही थीं लेकिन उन्होंने अपना संयम बनाये रखा और कुशलता पूर्वक कार चलाते रहे । कार चलाते हुए भी उनके दिमाग में रजनी ही छाई रही । अभी कल ही तो उसने बात किया था उनसे । कह रही थी ‘ बाबूजी ! ये अच्छे लोग नहीं हैं । पैसे के बहुत लालची हैं । हमेशा तंग करते रहते हैं , कि जाके अपने बाप से दस तोले सोने के जो बाकी हैं ले के आ । लेकिन मैं जानती हूँ आपकी हालत और जैसे ही मैं इंकार करती हूँ इनका मारना पीटना शुरू हो जाता है । अमर भी कुछ नहीं बोलते । मुझे डर लगता है बाबूजी ! कभी किसी दिन ये मुझे मार ही न डालें दहेज की लालच में । ‘ और भी बातें की थीं उसने बड़ी देर तक ।
रजनी अशोक और सीता की इकलौती संतान थी जिसे उन्होंने बड़े नाजों से पाला था । अपने सीमित आय में से भी उसकी खुशियों का ध्यान सबसे पहले रखा । पढ़ाई पूरी करने के बाद वह एक बैंक में काम करने लगी थी और अपनी मेहनत और योग्यता के बल पर शीघ्र ही उसकी पदोन्नति व्यवस्थापक के पद पर हो गई । लगभग 27 वर्षीय रजनी के हाथ पीले करने की चिंता अब अशोक बाबू को सताने लगी । समाज के कई जाने माने लोगों से सजातीय व खाते पीते घर का वर बताने का निवेदन किया गया रजनी के लिए । कई जगह रिश्तों की बात चली लेकिन भारी भरकम दहेज की माँग सारी संभावनाओं पर पानी फेर देता । रजनी ने पिताजी की अवस्था को महसूस करते हुए उन्हें अपने सहकर्मी राकेश के बारे में बताया और उससे ही शादी कर देने का निवेदन भी किया । लेकिन उसके निवेदन को उसकी नासमझी और अनुभवहीनता का प्रमाणपत्र देकर इंकार कर दिया गया । आकर्षक व्यक्तित्व व स्वस्थ शरीर का मालिक राकेश हर तरह से उसके योग्य था व रजनी की तरफ आकर्षित भी था लेकिन चूँकि सजातीय नहीं था अशोक बाबू ने साफ इंकार कर दिया । रजनी को समझाते हुए अशोक ने कहा था ,” बेटी ! हम तुम्हारे दुश्मन नहीं हैं ! राकेश बहुत अच्छा लड़का है लेकिन हमारे समाज का नहीं और दूसरी बात तुम मैनेजर हो और वह तुम्हारी ही बैंक में मामूली सा कर्मचारी । सोचो ! उसके वेतन से क्या तुम पूरा कर सकोगी अपने सपनों को ? ”
रजनी ने प्रतिवाद भी किया था ,” बाबूजी ! समाज कब किसीके काम आया है ? किसी न किसी पर हँसने के सिवा समाज के पास और कोई काम नहीं । रह गई राकेश के कम कमाई की तो वह मैं सँभाल लूँगी । मेरा वेतन कब काम आएगा ? ”
लेकिन रजनी के सारे तर्क धरे रह गए । अशोक बाबू को उसकी बात नहीं माननी थी सो इंकार के अलावा उनके पास अन्य कोई जवाब नहीं था ।
उन्हीं दिनों एक मध्यस्थ के द्वारा सेठ गरीबदास के इकलौते पुत्र अमर से रजनी की शादी तय हो गई । इस शादी में अपनी हैसियत से बढ़कर खर्च करने की वजह से अशोक बाबू अपनी जमापूँजी खर्च करने के बाद कुछ कर्जदार भी हो गए थे । लेकिन अमर जैसा घर वर पाकर अशोक जी कर्जदार होकर भी अपना दायित्व पूर्ण करने का सुख अनुभव कर रहे थे । उनके मन में मात्र एक कसक रह गई थी कि दहेज के लिए तय पचास तोला सोना की जगह वह चालीस तोला सोना ही दे पाए थे । उन्हें भरोसा था कि धीरे धीरे रजनी अपने व्यवहार से ससुराल वालों का दिल जीत लेगी और कोई दहेज की बात भी नहीं करेगा । लेकिन यही उनकी सबसे बड़ी गलती साबित हुई ।
सेठ गरीबदास आर्थिक मंदी के चलते गले तक कर्ज में डूबे हुए थे । मात्र ऊपरी चमक दमक कायम थी । शादी होने के कुछ दिनों बाद ही रजनी यह सब जानकर सन्न रह गई थी लेकिन अब वह कर ही क्या सकती थी ? जब तब उनके झूठ का वह विरोध करने लगी । आर्थिक समस्याओं की वजह से जब तब रजनी से बचे हुए दस तोले सोने की माँग होने लगी । उसके इंकार करने पर जब तब उसकी पिटाई भी होने लगी । असहनीय हो जाने पर रजनी ने एक दिन ससुराल वालों के इस अमानवीय व्यवहार का जिक्र अपनी माँ से कर दिया । उसकी माँ ने उससे सहानुभूति जताते हुए उसे नसीहत भी दे दी ” बेटा ! अब जो भी हो वही तेरा घर है । हमारे समाज में बेटी मायके से डोली में बैठकर ससुराल जाती है और ससुराल से उसकी अर्थी ही उठती है । अपने व्यवहार से उनका प्रेम और विश्वास जीतने का प्रयास करो । ”
इसके बाद कुछ और असहनीय घटनाओं के बाद कल ही उसने बाबूजी को अपने ऊपर होनेवाले अत्याचार की जानकारी दी और संभावित खतरे से आगाह भी किया था । लेकिन अशोक बाबू छोटी मोटी पारिवारिक कलह मानकर लापरवाह बने रहे । आज जब से यह फोन आया था उनके सामने सभी तस्वीरें किसी चलचित्र की तरह चलने लगी थीं ।
पचास किलोमीटर की दूरी तय करने में उन्हें लगभग एक घंटे लग गए । अस्पताल के प्रांगण में कार खड़ी करके अशोक बाबू और सीता जैसे ही अस्पताल के मुख्य दरवाजे के समीप पहुँचे उन्हें वहाँ रखी कुर्सियों पर रजनी की सास , ससुर और देवर बैठे मिल गए । सभी निर्विकार भाव से बैठे हुए थे । अशोक व सीता को देखकर भी वह सभी अंजान जैसे बैठे रहे । लेकिन अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए अशोक बाबू ने उनका अभिवादन किया और सेठ गरीबदास के नजदीक वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोले ,” कैसे हुआ ये सब ? क्या हुआ था ? “
” होता क्या जी ? हमारी तो किस्मत ही खराब थी जो आप जैसे दरिद्र खानदान में रिश्ता कर लिया । बहू रोज हमें आत्महत्या करके फँसाने की धमकी देती थी । और देखो आज सचमुच इसने अपनी धमकी पूरी कर दी । ” कहते हुए सेठ गरीबदास बिफर पड़े थे ।
उनसे बहस करने की बजाय अशोक बाबू सीता को साथ लिए हुए अस्पताल के वार्ड की तरफ बढ़ गए जहाँ रजनी का इलाज चल रहा था । अस्पताल के ‘ बर्न यूनिट ‘ में एक बेड पर विशेष बने हुए आवरण में रजनी का जिस्म ढँका हुआ था । एक डॉक्टर रजनी की बेड के समीप खड़ा उसका परीक्षण कर रहा था । ग्लूकोज़ की नलियाँ रजनी के शरीर में पैवस्त थीं । डॉक्टर की तरफ उम्मीदभरी नजर से देखते हुए अशोक जी ने पूछा ,” रजनी अब कैसी है डॉक्टर साहब ? ”
” शी इज नो मोर ! ” कहकर डॉक्टर तेज कदमों से चलता हुआ वार्ड से बाहर चला गया । पास खड़ी परिचारिका ने चद्दर रजनी के मुँह पर डाल दिया ।
अशोक बाबू अब अपना संयम खो चुके थे । उनके और सीता के रुदन से पूरा वार्ड दहल उठा ।
काफी देर रोने के बाद थके हारे लुटे पीटे अशोक जी अस्पताल के बरामदे में कुर्सी पर बैठे हुए थे । उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे रजनी उनके सामने प्रत्यक्ष खड़ी है और कह रही है ” बाबूजी ! देखा आपने ! आपके समाज ने आपको क्या दिया ? झूठी शान के नाम पर आपसे आपकी इज्जत , आपकी बेटी छीन ली और आपको दे दिया है अकेली जिंदगी , बेइज्जती और कर्ज के साथ ही जिंदगी भर के लिये मानसिक संताप ! काश ! आपने समाज के झूठी शान को इतनी तवज्जो नहीं दी होती तो आज मैं भी शायद राकेश के साथ सुख की जिंदगी जी रही होती । दहेज लेने वाला जितना दोषी है देने वाला उससे कम दोषी नहीं होता । मैं जा रही हूँ बाबूजी ! लेकिन आपसे निवेदन है कि कोशिश करना फिर कोई रजनी इस दहेज दानव का शिकार न बने । अलविदा बाबूजी ! ”
अचानक अशोक जी विक्षिप्तों की तरह ठहाके लगाने लगे ” हा हा हा ……मैं इज्जतदार हूँ …मैंने शान से दहेज दिया …हा हा …समाज के नाम पर अपनी बेटी को कुर्बान कर दिया …..”
और फिर अचानक फूट फूटकर रो पड़े !

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।